लोग अक्सर महिलाओं पर होने वाली हिंसा को सिर्फ शारीरिक मारपीट से जोड़ते है। पर हकीकत में प्रत्येक कार्य जिससे नारी छवि कलंकित होती है, उसे अत्याचार या हिंसक अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए । जिस संस्कृति में स्त्री को माँ के नाम से संबोधित किया जाता हो, वहां केवल सड़क पर होने वाल अभ्रता को हिंसा कहना गलत होगा क्यूंकि विभिन्न मंचो पे महिलाओं को उपभोग की वस्तु की तरह प्रदर्शित करना भी एक प्रकार की क्रूरता ही है । वास्तव में, महिलाओं की अश्लील फिल्में बनाना और देखना भी हिंसा का ही एक घिनौना रूप है और इसीलये कर्नाटक के विधायी सदस्यों का अपराध अक्षम्य है क्यूंकि उन्होंने अपने निर्लज्ज व्यवहार से ना केवल महिला जाति का अपमान किया है बल्कि संसदीय प्रांगण और प्रणाली का उपहास भी किया है।

कहने को भारत में महिलाओं को पूर्ण आज़ादी है लेकिन यहाँ हर क्षण महिलाओं का शोषण जारी है। इन घटनाओं की लम्बी फेहरिस्त बनाना बहुत आसान है पर सिर्फ चंद घटनाओं पर ध्यान दें तो पता चलता है कि देश में महिलाओं के प्रति हिंसा का कैसा तांडव चल रहा है. नई दिल्ली में एक सत्ततर साल की महिला का बलात्कार, नागपर में एक युवती की कॉलेज द्वार पर चाकू से हत्या, मुंबई में चलती ट्रेन में महिला के साथ दरिंदगी या मासूम फलक का जीवन संघर्ष…वगैरह वगैरह. लोग ऐसी घटनाओं के लिए समाज और सरकार को दोष दे, खामोश हो जाते हैं पर क्या इससे हमारा उत्तरदायित्व खत्म हो जाता है? क्या हम कभी गौर करते है कि आखिर सरकार और समाज है कौन? आखिरकार हम, आप और हमारे सगे-संबंधी, दोस्त ही तो सरकार और समाज की धुरी हैं, ठीक उसी प्रकार जिस तरह भ्र्ष्टाचार या बेईमानी करने वाले कोई और नहीं हमारे वो अपने हैं जिनको तिरस्कृत करने की बजाये, हम लोग अपने घरों में पनाह देते है।

अगर हम आत्म-निरीक्षण करें तो पता चले कि महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा बहुत हद तक हमारी सामाजिक सोच और व्यवहार का ही प्रतिबिम्ब है. सच कहिये, या हमारे घरों में अभी भी लड़कों और लड़कियों में भेद नहीं किया जाता? क्या दफ्तरों में औरतों कि हर कामयाबी पर टुच्ची टिप्पणियाँ नहीं की जातीं? क्या औरतों के किसी पराये मर्द से बातचीत करने पर घर, दफ्तर और मोहल्ले में फित्तियां नहीं कसी जातीं? क्या ज्यादातर घरों में अपनी लडकी और बहू के लए अलग अलग सामाजिक अपेक्षाएं नहीं रखी जातीं ? क्या ज्यादातर पुरुष नारी देह को भोग-विलास की दृष्टी से नहीं तोलते और क्या पुरुषों द्वारा स्त्री जाति से सम्बंधित गालियों का प्रयोग भी, हमारे संकुचित सामाजिक दृष्टीकोण, नैतिकता और सभ्यता को नहीं दर्शाता ?

ज़ाहिर है जिस समाज में लोग द्रोपदी को बाँटते आये हों और जहाँ औरत एक व्यक्तित्व ना होकर एक भोगनेवाल वस्तु समझी जाती हो, वहां मारपीट करने वालों को अपने व्यवहार में कुछ गलत नज़र नहीं आएगा. और आये भी कैसे, जब कार से लेकर साबुन तक हर चीज़ को बेचने के लिये स्त्री को निर्वस्त्र किया जाता है और कई महिलाएं इसी को स्त्री-शक्ति की संज्ञा देती हैं ! कहने का तात्पय ये है कि महिलाओं पर लगातार हिंसा हो रही है – सिर्फ शारीरिक ही नहीं बिल्क मानसिक भी – लेकिन भारतीय समाज, कबूतर की तरह आँख मूँद कर, विषय से बच रहा है जबकि इसके समाधान के लए हम सबको घर-आंगन की बोल और व्यवहार में बदलाव लाना होगा।

दुःख इस बात का है कि जब ऐसी हिंसक घटनाएं घटती हैं तब ज्यादातर लोग मूक दर्शक बन खड़े रहते हैं? जब दस बीस लोग भी महिलाओं की मदद के लिए कभी आगे नहीं आते तो बीजेपी या किसी राजनैतिक पार्टी से कैसे य़े अपेक्षा की जाती है कि वो इतिहास बदल नयी शुरुआत करेंगे जबकि दुष्शासन के आगे भीष्म और भीम भी तक नतमस्तक हो बैठे रहे थे ! बहुत अजीब देश है य़े भारत क्यूंकि यहाँ औरतों पे हिंसा के लिए तो आये दन तलवारें खिंच जाती है, पर तीन सौ साल तक, मुट्ठी भर अंग्रेजों के खिलाफ, करोडो देशवासियों का पौरुष सोता ही रहा। शायद इसीलए भारतीय नारी की शाश्वत व्यथा यही है कि “आँचल में है दूध पर आँखों में पानी”।

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