हमारे देश में आम आदमी के नाम पर लाखों बातें होती हैं तथा प्रत्येक कार्य की प्रेरणा और लक्ष्य सिर्फ आम आदमी होता है। जिसे देखो वो या तो आम आदमी की चिंता से ग्रसित है या फिर उसके जीवन स्तर को सुधारने में प्रयासरत है। नेता हो या अभिनेता, सरकारी अधिकारी हो या कर्मचारी, मिल मालिक हों या दुकानदार, डाक्टर हो या कसाई, हर कोई यही कहता फिरता है कि वो जो कुछ कर रहा है वो आम आदमी की उन्नती के लिये कर रहा है ।
काश, एक आम आदमी समझ पाता कि लोकतंत्र में उसकी तकलीफों को दूर करने के लिये राजनैतिक, सामाजिक, औद्योगिक, वाणिज्यिक और कला जगत की विशिष्ठ विभूतियाँ किस तरह अपना सर्वस्व न्योच्छावर कर रही हैं। आम आदमी अगर बेवकूफ ना होता तो उन “सभ्य लोगों” की निंदा ना करता जो कि समय-समय पर बस-रेल को जला कर, सार्वजनिक संपती को नष्ट कर या संसद – विधान सभाओं को ठप्प कर, उसकी तकलीफ को मुखरित कर रहे हैं। आम आदमी बेशक कृत्घन है तभी तो नहीं मानता कि सरकारें टैक्स बढाती हैं या विपक्षी दल हड़तालें आयोजित करते हैं तो सिर्फ इसलिए क्यूंकि य़े सब उसकी उन्नती के लिये ज़रूरी हैं और उन्हें उसकी रोज़ी-रोटी की बहुत चिंता है! आम आदमी बेअकल है तभी तो बूझ नहीं पाता कि चीज़ों के दाम इसलिए नहीं बढ़ते क्यूंकि उद्योगपति मुनाफा कमाना चाहते हैं बल्कि इसलिए क्यूंकि वो आम आदमी को समृद्धशाली बनाना चाहते हैं और “हुनरमंद” डाक्टर अगर महंगी दवाइयां लिखते हैं तो सिर्फ इसलिए कि आम आदमी रोग से ही नहीं सारे कष्टों से मुक्त हो जाये ! गरज कि औद्योगिक घराना हो या सरकारी विभाग, राजनैतिक पार्टियां हों या गैर सरकारी प्रतिष्ठान, सभी आम आदमी के कल्याणार्थ कार्य कर रहे हैं और फिर भी महंगाई बढ़ रही है तो सिर्फ इसलिये ताकि आम आदमी को सड़क, बिजली, पानी आसानी से उपलब्ध कराये जा सकें !
आम आदमी की गलती य़े है कि वो सेवा करने वालों की अहमियत नहीं समझता। अब देखिये ना, गणमान्य लोगों ने उसके लिये कितने ही मंदिर-मस्जिद बना दिये पर उसे शिकायत है कि पूजा-अर्चना या दर्शन के लिये आम आदमी को अतिविशिष्ट लोगों की तरह सुविधा प्रदान नहीं की जाती। अब इस अज्ञानी को कौन समझाये कि सुविधापूर्ण दर्शन के लिये विशेष “प्रयोजन और शुल्क” चुकाए बिना परमात्मा से मिलना बहुत कठिन होता है। ताज्जुब तो इस बात का है कि आज जब अनेक “ज्ञानी-ध्यानी” उसके लिये नए मंदिर और मस्जिद बनाना चाहते हैं तो भी य़े मूर्ख, बजाये खुश होने के, रोटी, कपडा और मकान की ज़िद लिये बैठा है। लगता है आम आदमी का तो फितूर ही रोना है जबकि सारी व्यवस्था उसको खुशहाल और आनंदमयी बनाना चाहते हैं। अब देखिये ना, भारत भर में कुकुरमुत्ते से फैले विद्यालयों की भरपूर चेष्ठा है कि आम आदमी साक्षर हो जाये पर वो है कि लगातार मांग करता रहता है कि स्कूल और विद्यालयों की फीस कम की जाये। ठीक है कि इन निजी विद्यालयों ने सस्ते दामों में सरकार से ज़मीनें ली है पर शिक्षा भी तो आखिर एक उद्योग है जिसमें मालिकों ने अथाह लेनदेन किया है और अगर विद्यार्थी से रियायत करेंगे तो कमाएंगे कैसे?
देश के किसी भी कोने में चले जाइए, संगोष्ठी, समारोह और सम्मलेन से लेकर आन्दोलन तक सब आम आदमी की खातिर आयोजित हो रहे हैं भले ही उनमें आम आदमी की उपस्थिती नगण्य हो। और तो और, किसी ऑटो या टैक्सी चालक से पूछेंगे तो वो भी यही कहेगा कि वाहन चलाना घाटे का सौदा है पर वो अपना काम सिर्फ इसलिए कर रहा है ताकि आम आदमी का भला हो सके। अगर मीटर के मुताबिक़ किराया भाड़ा ना लेना एक आम आदमी की भलाई का काम है तो फिर विमान कम्पनियां द्वारा टिकिटों के बेतरतीब दाम बढ़ाना कौन सा गुनाह है जबकि उनकों तो बहुत से रसूखदारों को “ज़रूरी कर” भी चुकाने पड़ते हैं? कहने का तात्पर्य य़े है कि सिपाही, पटवारी, सरपंच, जन-प्रतिनिधि से लेकर शिक्षक, सेवक, अधिकारी, व्यापारी, कलाकार और बुद्धीजन तक, सब आम आदमी को समर्पित हैं तथा रिश्वत, सूदखोरी से लेकर जिस्मफरोशी तक के तमाम कार्य सिर्फ इस आम आदमी की भलाई के लिये किये जा रहे हैं, पर य़े आम आदमी है कि हर समय माथे पे सलवट लिये घूमता रहता है। इसे समझ ही नहीं आता कि अगर आज़ादी के पैंसठ साल बाद भी य़े फटे हाल जी रहा है तो इसमें कसूर किसी और का नहीं इसकी तकदीर का है जिसने इसे होशियार, पाखंडी और बेईमान नहीं बनाया।