क्या अजीब समय आया है कि इंसानी भावनाओं से ले कर इंसानी रिश्तों तक, हर चीज़ बिकाऊ हो गयी है. यूँ तो पूरा संसार ही आज एक बड़े से बाज़ार में तब्दील हो गया है पर युग परिवर्तन का खेल देखिये, मंडी में रखी सब्ज़ी-तरकारी की तरह, आजकल मानवीय संवेदनाओं का भी भौंडा प्रदर्शन किया जाता है. समझ नहीं आता कि क्यूँ जो लोग एक साथ रहते हैं, एक बिस्तर पर सोते हैं, वो लोग, एक-दूसरे को जन्मदिन या शादी की सालगिरह की मुबारकबाद, फेसबुक या ट्विटर के पन्नों पर ही प्रेषित क्यूँ करते हैं? कोई पूछे कि क्यूँ लोग अपने पति-पत्नी या बच्चे को बधाई या उनके प्रति प्रेम के उदगार, व्यक्तिगत तौर पर उनके सम्मुख, एकांत में नहीं दे सकते?
प्रेम संबंधों की प्रगाड़ता ह्रदय में महसूस होनी चाहिए, संवेदनाओं की गहरायी व्यवहार में प्रकट होनी चाहिए, उन भावनाओं की घटिया सार्वजनिक नुमाइश किस लिये? सामाजिक मीडिया पर कोई किसी प्रकार की सूचना दे वो तो समझ आता है पर अपने अन्तरंग संबंधों का भौंडा दिखावा, दुनिया के सामने आपसी प्रेम का लिजलिजा प्रकटीकरण, आखिर क्यूँ और किस लिए?
हैरानी तो तब होती है जब लोग अपने सगे-सम्बन्धी या रिश्तेदार की मृत्यु के चंद घंटों बाद ही, मृत्यु की सूचना देने की बजाये, अपने प्रेम संबंधों के कसीदे लिखने लग जाते हैं. ये कैसी विचित्र आदत आई है आधुनिक समाज के पढ़े लिखे लोगों में कि वो अपने दुःख तक का प्रदर्शन एक चलचित्र की तरह करते हैं. समझ के परे है कि लोग हर समय, अपनी भावनाओं और संवेदनाओं के बाज़ारी प्रदर्शन में ही क्यूँ लगे रहते हैं? आखिर इससे हासिल क्या हो जाता है?
इसी सम्बन्ध में कुछ साल कि एक घटना मुझे याद आती है. कारगिल के युद्ध में सेना के एक नौजवान अफसर की मृत्यु हो गयी. वो शहीद क्यूंकि जयपुर शहर का रहने वाला था, इस कारण सारे शहर में एक शोक की लहर सी छा गयी और मीडिया ने उस नौजवान और उसके परिवार के बारे में कई वृतांत छापे. कई दिनों बाद, जब उस शहीद सैनिक का पार्थिव शरीर, सीमा से दिल्ली होते हुए जयपुर लाया जा रहा था तो राज्य सरकार ने घोषणा कि की शहीद की देह को जयपुर के राम निवास बाग़ के संग्रहालय के प्रांगण में, सार्वजनिक श्रद्धांजलि के लिए रखा जायेगा. इत्तेफाक से उस शहीद के मामा जी, कुछ वर्ष पूर्व, मेरे यहाँ क्लर्क का काम करते थे और इसी रिश्ते के चलते, शहीद की बहन ने मुझ से संपर्क कर, अपने सैनिक भाई की अंतिम यात्रा को मीडिया कवरेज कराने का निवेदन किया. मैंने उस आग्रह को नतमस्तक हो स्वीकार किया और अपने मीडिया साथियों को उनके चैनल में श्रधांजलि के समाचार को यथावत जगह देने का निवेदन किया. मुझे याद है कि इस प्रयास के अंतर्गत, एनडीटीवी से लेकर दूरदर्शन तक सभी चैंनलों ने उस नौजवान शहीद की याद को यथोचित सम्मान दिया.
लेकिन मुझे आश्चर्य तब हुआ जब अन्तेष्टी से कुछ घंटे पहले उस सैनिक की बहन ने लगातार मुझे करीब एक दर्जन फोन कर, बार-बार दबाव डाला कि मैं एनडीटीवी चैंनल पर उसका साक्षात्कार करवा दूँ. यहाँ ये बताना उचित होगा कि उस वक्त शहीद सैनिक का पार्थिव शरीर, सैन्य दस्ते द्वारा एक सजे धजे ट्रक पे आमेर के रास्ते जयपुर शहर में लाया जा रहा था और उनकी ये बहन, उसी ट्रक पर, देह के समीप बैठ, मुझे मोबाइल पर संबोधित कर रही थी. मैंने उस महिला को समझाने की कोशिश की कि पार्थिव शरीर के सम्पूर्ण श्रधांजलि समारोह का सजीव प्रसारण जा रहा था और जब भी संभव होगा, उसकी बात को प्रसारित करने का प्रयास किया जायेगा. पर वो बार-बार, फोन कर यही कहती रही कि “आप मेरा एनडीटीवी पर साक्षात्कार करवा दीजिये क्यूंकि मुझे अपने भाई के बारे में बात करनी है”. निकृष्ट आचरण की इससे बड़ी मिसाल और क्या होगी कि अंततः वो बोली, “देख लीजिये, अगर एनडीटीवी ने मेरा साक्षात्कार न लिया तो वो मेरे विशिष्ट इंटरव्यू से वंचित रह जायेंगे.” शहीद सैनिक के प्रति आदर भाव के कारण मैं ऐसा करने के लिये किसी को बाध्य नहीं करना चाहता था लेकिन उसकी धृष्टता देखिये कि आधे घंटे बाद, जब एडवर्ड मेमोरियल पर पार्थिव शरीर पर फूल चढ़ाये जा रहे थे तथा सारा माहौल ग़मगीन और संजीदा था, उस वक्त उस महिला ने पुनः फोन कर मुझे सूचित किया कि “आज तक”, “ज़ी न्यूज़” और “दूरदर्शन” ने उसका इंटरव्यू ले लिया था और मैं उसको उन समाचार चैंनल पर देख लूँ. यही नहीं, कुछ महीनों बाद, जब उसी महिला का मुझ से जयपुर की एक प्रतिष्ठित मार्केट में आमना-सामना हुआ तो उस सजी-धजी महिला ने मुझे उस दिन के साक्षात्कार में सहयोग न देने का उलाहना दिया जब कि सम्पूर्ण मीडिया की शानदार कवरेज मेरे ही प्रयासों से संभव हुई थी क्यूंकि वो शहीद सैनिक मेरे ही स्कूल का विद्यार्थी रहा था!
ये एकमात्र घटना हो ऐसा नहीं है. लोग आजकल लगभग प्रत्येक दिन, निकृष्टता के नये आयाम रच रहे हैं. अजीब विरोधाभास है कि लोग बड़ी-बड़ी इमारतों में तो रहते हैं पर उनकी सोच, दृष्टिकोण और समझदारी इतनी घटिया, अमानवीय और अमानुषिक हैं कि उन पर तरस आता है. उनके पास भारी भरकम डिग्रीयाँ, भोग-विलास की अत्याधिक वस्तुएं तो ज़रूर हैं लेकिन विवेक और समझ बहुत कम हैं. लोगों के पास अपार संपत्ति है पर नैतिक मूल्यों के मामले में वो लोग पूरी तरह निर्धन और शून्य हैं. विख्यात और लोकप्रिय लोगों की कथनी और करनी में इतना अंतर आ गया है कि उनके ऊपर भरोसा करना भी अब मुश्किल हो गया है. कुछ दिन पहले कि बात है जब फिल्म जगत के एक सुपर सितारे ने अपनी माँ की पुण्यतिथि पर सोशल मीडिया पर लिखा कि “आज विश्व की सब से सुन्दर और सब से अच्छी माँ की पुण्यतिथि है. उनकी याद में मैंने आज मौन व्रत रखा है!” अब इस स्वप्रेम में डूबे महानायक को कौन बताये कि दुनिया के प्रत्येक बच्चे की नज़र में उसकी माँ सर्वश्रेष्ठ होती है तथा इस प्रकार के बेहूदा लेखन से आप दूसरों की माताओं का उपहास और अपमान कर रहे हैं. दूजे इस अहंकार ग्रसित अभिनेता से कोई पूछे की भाई तूने अगर मौन व्रत रखा है तो इसका सार्वजनिक ऐलान किस लिये?
मुझे तो जब कोई विख्यात विभूति या संस्था बहुत ज़ोर-शोर और कैमरों की फ़ौज को साथ ले कर कुछ करता दिखता है तो मुझे उस कार्य में इमानदारी कम और दिखावा ज़्यादा लगता है तथा उन विभूतियों की सनक और सोच पर तरस आता है कि वो सार्वजनिक प्रशंसा प्राप्त करने के लिये कितने प्रपंच करते हैं. एक पेड़ को रोंपने या गरीब को एक कम्बल देने में जब पचास व्यक्ति मिल कर फोटो खिंचाते हैं तो मुझे वो भांडगिरी लगती है, समाज सेवा नहीं.
इसी वजह से टीवी चैंनलों के कैमरों से लैस हो कर जब देश का शीर्ष नेता अपनी माँ के घर जाता है और माँ के पैर धो कर, अपने सात अलग-अलग कोण से खींचे गये चलचित्रों को सारे विश्व को दिखाता है तो मुझे उस व्यक्ति की नीयत पर शक होता है. हम तो अपनी माँ के चरण छूने के लिए, कैमरे साथ ले कर के नहीं चलते और न ही हमें पैर छूने का कोई प्रमाणपत्र सब के सामने रखते हैं. अपनी माँ की सेवा करना हर बच्चे का नैतिक कर्म है, ज़िम्मेवारी है तथा अन्तरंग संबंधों की संवेदना और ताकत ही मनुष्य की निजी धरोहर है जिसका सार्वजनिक मंचन या ढिंढोरा, पवित्र रिश्तों का बाज़ारीकरण और अपमान हैं. बहुत दुखद है कि भारत जैसे राष्ट्र का एक विख्यात नागरिक, अपने राजनैतिक फायदे और अपने अनुयायीयों को प्रभावित करने के लिये, अपनी माँ का इस्तेमाल एक इश्तेहार की तरह करता है. अंधभक्त भले ही किसी मजबूरी तहत ऐसे व्यवहार को सही ठहराते हों पर वास्तव में, ये प्रेम, वात्सल्य और स्नेह का स्वाभाविक सम्प्रेषण नहीं बल्कि मानवीय संबंधों को दोहने का निकृष्टतम कृत्य है!
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