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जीवन के किसी भी पहलू का ज़िक्र कीजिये, कृष्ण का व्यक्तित्व उसमें समाहित और संपूर्ण मिलेगा। यूँ तो दुनिया में करोड़ो अदभुत लोग हुए हैं पर ये कहना गलत ना होगा कि कृष्ण का व्यक्तित्व सब से सरस, सरल और निर्मल होते हुए भी सब से विराट है। जीवन के हर अध्याय पर कृष्ण की अमिट छाप है और कौन है जिसे श्याम वर्ण के कृष्ण से प्रेम नहीं है?

जो लोग कृष्ण को किसी समुदाय, किसी धर्मं के साथ जोड़ते हैं, वो कृष्ण के व्यक्तित्व और सोच के साथ नाइंसाफी करते हैं। कृष्ण संसार के सबसे विशिष्ट आध्यात्मिक व्यक्ति हैं जिन्हें संसार की हर परिस्थिती, हर पहलू, हर रंग स्वीकार्य है। अच्छाई-बुराई, शुभ-अशुभ, फूल-कांटे, सभी कुछ कृष्ण को स्वीकार्य हैं क्यूंकि जीवन को सहज जीना ही कृष्ण का ध्येय है। बाल काल से लेकर अंत समय तक, कृष्ण का जीवन मनोरम लीलाओं का संगम है, जिनके भीतर प्रेरणा के अनेकों मौन संकेत छुपे हैं। जीवन की सम्पूर्णता का आनंद और अनुभूति ही कृष्ण है।

कृष्ण के बहुआयामी व्यक्तित्व को किसी परिधी में कैद करना मुश्किल है। वो मित्र हैं, सखा हैं, गुरु हैं, योद्धा हैं, दूत हैं, राजा हैं तो साथ ही राजनीतिज्ञ भी, वो गायक हैं, गीतकार हैं, संगीतकार हैं तो साथ ही नृतक और दार्शनिक भी, वो श्रोता भी हैं तो वक्ता भी, आम तौर पर कोई व्यक्ति दो चार विधाओं में पारंगत होता है तो इठलाने लगता है पर कृष्ण चौसठ कलाओं से परिपूर्ण वो महानायक हैं जिनके सम्मुख सारी दुनिया बौनी नज़र आती है।

कृष्ण शब्द का मतलब है जो आकृष्ट करे यानी जो आकर्षित करे। ध्यान दें तो हम जानेंगे कि हमारे भीतर जो सब से सुन्दर और मनोरम गुण हैं वो ही कृष्ण हैं। प्रत्येक मनुष्य में ये सम्भावना है कि वो कृष्ण हो जाये, कशिश का केंद्र बन जाये। जब भी कोई इंसान प्रेम भाव से भर जाता है,उसका हृदय, उसका व्यक्तित्व, जब राग द्वेष से मुक्त हो कर प्रेम से ओत प्रोत हो जाता है, तब वो कृष्णमयी कहलाता है। फर्क सिर्फ इतना है कि जहाँ कृष्ण का प्रत्येक पल प्रेम रस से सिंचित रहते हुए भी अनासक्त रहता है, हम साधारण मनुष्य कभी कभार ही प्रेम से प्रेरित होते हैं और उसमें भी ज्यादातर आसक्ती और स्वार्थ का पुट भरा रहता है.

कृष्ण के विराट व्यक्तित्व को बहुत कम लोग समझ पाये हैं और छोटे से पन्ने पर उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का विश्लेषण कर पाना नामुमकिन है। पर ये कहना गलत ना होगा कि मानव समाज और आत्मा के सर्वश्रेष्ठ गुणों के प्रतीक कृष्ण है। निष्काम कर्म और स्थित प्रज्ञ व्यक्तित्व, जो हर परिस्थिति में तटस्थ है, उसी का विशालतम स्वरुप कृष्ण हैं। अनंत और सच्चे प्रेम, कर्तव्य और अनासक्त भाव का सबसे अनोखा व्यक्तित्व है कृष्ण और क्यूंकि उनमें परमात्मा का समावेश है, इसलिये उनके समक्ष सभी मनुष्य श्रद्धा से भर जाते हैं।

अगर लोग कृष्ण की क्रीडाओं और लीलाओं से सीख लें तो निसंदेह उनके व्यक्तित्व और जीवन में क्रांतीकारी बदलाव आ जाये। संकीर्ण विचारों और कृत्यों से ऊपर उठ, मानवता के कल्याण को समर्पित होना ही कृष्ण की सच्ची भक्ति है। पर अफ़सोस, लोगों ने जिस प्रकार राम के नाम का व्यापार किया है, वैसे ही आज वो कृष्ण के नाम को भी जात बिरादरी से जोड़ नासमझी कर रहे हैं जब कि कृष्ण को समर्पण का मतलब है मानव मन के सर्वश्रेष्ठ भावों से प्रेरित हो कर, जीवन के हर क्षण को संपूर्ण कर्मठता के साथ जीना। जब मनुष्य प्रत्येक पल, निडरता के साथ, निष्काम भावना से कर्म करता है, तो वो स्वयं सात्विक आनंद का स्त्रोत बन जाता है, कृष्ण हो जाता है क्यूंकि कृष्ण ही आनंद और आध्यात्मिकता के पर्याय हैं।

सदियों से सर्वविदित है कि भाषा ही घर, समाज और संस्कृति की धुरी है और जीवन के प्रत्येक क्षण को ही नहीं, अवचेतन मन को भी भाषा प्रभावित करती है। भाषा का समुचित ज्ञान, मानव-संवाद के लिए अति आवश्यक है क्यूंकि इससे भावनाओं और विचारों को व्यक्त करने में आसानी होती है और समाज को संस्कृति और संस्कार मिलते हैं। इसीलिए बहुत पीड़ा होती है ये देख कि भारत में क्यूँ सार्वजनिक एवं राजकीय आयोजनों में अक्सर हिन्दी को वो यथोचित सम्मान नहीं मिलता, जिसका इस राष्ट्रभाषा को अधिकार है। ये बात समझ से परे है कि क्यूँ सरकार, जो हिन्दी अपनाने का न केवल आग्रह करती है बल्कि प्रतिवर्ष १४ सितम्बर को हिन्दी दिवस भी मानती है, अपनी कार्यशैली में हिन्दी का निरंतर तिरस्कार करती है?

सरकार की कथनी और करनी के अन्तर पर मनन करें तो पायेंगे कि हिन्दी भाषी लोग ही हिन्दी के सब से बड़े दुश्मन हैं और चूंकि अधिकारी वर्ग इन्हीं लोगों का प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए  हिन्दी से सौतेला व्यवहार निश्चित हो जाता है। हमारे देश में प्रत्येक दिन हिन्दी की हत्या होती है क्यूंकि हिन्दी का पाठक ना तो हिन्दी का समर्थन करता है, न ही हिन्दी की किताब खरीद कर पढ़ता है। हिन्दी भाषी पाठक हीन भावना से ऐसा ग्रसित रहता है कि किसी के सम्मुख हिंदी की पुस्तक भी नहीं खोलता, बल्कि बेवजह अंग्रेज़ी को मुंह मारता है। यही वजह है कि हिन्दी साहित्यिक कृतियों की बिक्री नगण्य हो गई है और हिन्दी की विशिष्ट पत्रिकाएँ  “धर्मयुग”, “सारिका”, “दिनमान” “माधुरी”, “कादंबिनी” आदि ने पाठक की उपेक्षा के कारण दम तोड़ दिया है, जब की अंग्रेज़ी की फूहड़ से फूहड़ पत्रिका भी फल फूल रही है क्यूंकि अंग्रेज़ी की दासता हमारी मानसिक कमजोरी है. इसी कारण, हिन्दी नाटक और साहित्यिक सम्मेलन भी दर्शकों के अभाव में दम तोड़ रहे हैं जब की अंग्रेज़ी के आयोजनों में बेतरतीब भीड़ होती है।

हिन्दी की प्रतिष्ठा को ठेस पहुचाने में संवाद वाहकों (मीडिया) का हाथ भी कम नहीं हैं। हिन्दी के समाचार पत्र, रेडियो और टीवी चैनलों में आज जिस प्रकार अंग्रेज़ी भाषा की शब्दावली का बेवजह इस्तेमाल हो रहा है, वो निकृष्टता की पराकाष्ठा है। निजी टीवी और रेडियो प्रसारण को छोड़िए, जिस आकाशवाणी और दूरदर्शन को एक समय हिन्दी के व्याकरण और उच्चारण का पर्याय माना जाता था, वहाँ भी उद्घोषकों और विशेषज्ञों द्वारा प्रतिदिन हिन्दी की जो दुर्गति की जाती है उस पर रोना आता है।   

पर घने अंधकार में भी एक स्वर्णिम प्रकाश का आभास होता है और वो ये कि आज देश ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व में हिन्दी भाषा की ओर रुझान बढ़ रहा है। भारत के सभी प्रांतों के लोग आज हिन्दी बोलते और समझते हैं, हिन्दी में संवाद करते हैं और हिन्दी के गीतों और कहानियों को पसंद करते हैं। लेकिन उसकी व्यापक और सामाजिक स्वीकृति तभी होगी जब संकीर्ण सोच वाले हिन्दी को एक समूह विशेष की भाषा बताना बंद कर देंगे क्यूंकि सभी भाषाएँ सम्माननीय हैं और सभी हमारी गंगा-जमुनी संस्कृति का हिस्सा हैं। पर चूंकि हिन्दी भाषा से राष्ट्र की एक विशिष्ट पहचान जुड़ी हुई है, इसलिए राष्ट्रभाषा की उत्कृष्टता, गरिमा और संरक्षण का हमें विशेष ध्यान रखना होगा। हमें रूस, चीन, जर्मनी जैसे देशों से सीखना होगा जो अपनी राष्ट्रीय भाषा के उपयोग से दुनिया के हर क्षेत्र में अपनी पहचान बना रहे हैं, वरना हमेशा की तरह, दुनिया की सर्वश्रेष्ठ भाषाओं में से एक हो कर भी, हिन्दी अपनों की उपेक्षा के कारण लज्जित होती रहेगी।  

आम-आदमी बहुत बेअक्ल है तभी तो बूझ ही नहीं पाता कि सरकार चीज़ों के दाम इसलिए नहीं बढ़ाती कि उद्योगपति मुनाफा कमा सकें बल्कि इसलिए कि आम-आदमी समृद्धशाली बन सके।

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19 जुलाई 1969 को जब 14 प्रमुख वाणिज्यिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था तो सरकार की दलील थी कि उसे मजबूरन ऐसा करना पड़ा क्यूंकि निजी क्षेत्र के बैंक गरीब नागरिकों के हितों को नज़र-अंदाज़ कर रहे थे। इसी नीति के चलते, जब दूसरे चरण में 6 और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया तो 91 प्रतिशत बैंकिंग उद्योग पर भारत सरकार का नियंत्रण हो गया। द प्रिंट के अनुसार, 2015 तक जहाँ बैंकिंग क्षेत्र के 74 प्रतिशत व्यवसाय पर सरकारी बैंकों का आधिपत्य होता था, वो अब घट कर सिर्फ 59.8 प्रतिशत रह गया है, जबकि निजी बैंकों का हिस्सा बढ़ कर लगभग 34 प्रतिशत हो गया है।  

हालांकि राष्ट्रीयकरण का मुख्य उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में बैंक शाखाओं का विस्तार कर, ग्रामीण किसानों को सस्ते वितीय संसाधन उपलब्ध कराना था, लेकिन ये लक्ष्य अब पूरे नहीं किये जा रहे। आज भी ज़्यादातर ग्रामीणवासी बैंक सुविधा से वंचित है और गरीब को आज बैंकों द्वारा दुत्कारा और प्रताड़ित किया जाता है। उसकी ज़रूरतों और सुविधाओं के लिए राष्ट्रीयकृत बैंक कभी उतने तत्पर नहीं होते जितने की शहरी ग्राहक के लिए, वर्तमान केंद्र सरकार ने तो खैर राष्ट्रीयकृत बैंकों को निजी क्षेत्र को बेचने का इरादा कर रखा है और ऐसा लगता है कि सरकार, अपने कर्तव्य से मुंह मोड़, निजी व्यवसायियों को ग्रामीण साहूकारों की तरह ताकतवर होने का मौका दे रही है। 

भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़े दर्शाते हैं कि पिछले दो दशकों में वाणिज्यिक बैंकों की ग्रामीण शाखाओं की संख्या में  भारी कमी कर दी गयी। प्रसिद्ध समाज विश्लेषक पी साईनाथ के अनुसार 1993 से 2007 की अवधि के दौरान, औसतन प्रत्येक कार्मिक दिन में एक अनुसूचित वाणिज्यिक बैंक की ग्रामीण शाखा को देश में बंद किया गया, जबकि इसी अवधि में शहरी बैंक शाखाओं की संख्या देश भर में दुगनी से अधिक हो गयी। ये आंकड़े साबित करते हैं की सब सरकारों की कथनी और करनी में अंतर है और गरीबों की चिंता महज़ एक दिखावा। वर्तमान सरकार तो वैसे ही सरकारी बैंकों के स्तर को सुधारने की बजाये पूरी तरह से राष्ट्रीयकृत बैंकों को निजी क्षेत्र को सौंपने की हिमायती है, जिससे देश की अर्थ-व्यवस्था को घातक नुक्सान हो सकता है। सच यही है कि ग्रामीण किसानों और काश्तकारों को जानबूझकर, एक सुनियोजित तरीके से, साहूकारों के शिकंजे में धकेला जा रहा है।

पिछली जनगणना अनुसार 72 फीसदी भारतीय गावों में रहते हैं, पर बैंकों का 92 फीसदी ऋण शहरी और अर्ध शहरी क्षेत्रों को दिया जाता है। आज प्रधानमंत्री आम आदमी को किसी भी प्रकार की राहत को रेवड़ी कह कर खिल्ली उड़ाते हैं तथा किसानो की ऋण माफी की भी बहुत से लोग निंदा करते हैं। पर सरकारी कारिंदे और निजी व्यापार के समर्थक वो भूल जाते हैं की आईडीबीआई और आईऍफ़सीआई जैसे सिर्फ दो संस्थानों द्वारा इससे कहीं गुना ज्यादा औद्योगिक ऋण माफ़ किया जा चुका है। अखबार इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार पिछले आठ सालों में, राष्ट्रीयकृत बैंकों द्वारा उद्योगपतियों के 10 लाख 72 हज़ार करोड़ रूपये के निजी ऋण को माफ़ कर दिया गया है।

(Indian express: https://indianexpress.com/article/business/banking-and-finance/banks-write-off-rs-2-02-lakh-cr-in-fy21-7669513/)

कितना अजीब है कि उद्योगपतियों की कोठियां बढ़ती जाती हैं पर ऋण माफ़ हो जातें हैं और गरीब आत्महत्या कर रहे हैं, तब भी उनके घरों की नीलामी की जा रही है। आज राष्ट्रीयकृत बैंकों का व्यवहार भी निजी बैंकों जैसा असंवेदनशील हो गया है जहाँ आम आदमी पर ना केवल तमाम नियम कायदे लादे जाते हैं, बल्कि उसके बुनियादी हक़ भी छीन लिये गए हैं। एक आम नागरिक आज राष्ट्रीयकृत बैंक में आसानी से बचत खाता भी नहीं खुलवा सकता तो फिर ऐसे बैंकों का फायदा क्या? क्या सरकारी बैंकों को एक आम आदमी की ज़रूरतों और आकाँक्षाओं का ध्यान नहीं रखना चाहिए, ख़ास कर तब जबकि उसमें भारतवासियों का पैसा लगा हुआ है? क्या सरकारी बैंकों का सामाजिक उत्तरदायित्व देशवासियों, ख़ास कर आम आदमी के प्रति कुछ भी नहीं?

होना तो ये चाहिए कि राष्ट्रीयकृत बैंकों के इन्फ्रास्ट्रक्चर को बेहतर बनाया जाये, उनकी कार्य प्रणाली पारदर्शी बढ़ाई जाती तथा उनमें रिक्त पदों को शीघ्र भरा जाता। लेकिन इसके विपरीत, जानबूझ कर, हर तरह से राष्ट्रीयकृत बैंकों को कमज़ोर किया जा रहा है, तथा उनके निजीकरण के लिये, उनका शोषण किया जा रहा है। सामाजिक संतुलन और देश की आर्थिक सम्पन्नता के लिये बहुत ज़रूरी है कि सरकारी बैंक मज़बूत किये जाएँ, वर्ना ईस्ट इण्डिया कंपनी की तरह, निजी बैंक व्यवसायी, देश की संपत्ति को दीमक की तरह चाट जायेंगे।