क्या अजीब समय आया है कि इंसानी भावनाओं से ले कर इंसानी रिश्तों तक, हर चीज़ बिकाऊ हो गयी है. यूँ तो पूरा संसार ही आज एक बड़े से बाज़ार में तब्दील हो गया है पर युग परिवर्तन का खेल देखिये, मंडी में रखी सब्ज़ी-तरकारी की तरह, आजकल मानवीय संवेदनाओं का भी भौंडा प्रदर्शन किया जाता है. समझ नहीं आता कि क्यूँ जो लोग एक साथ रहते हैं, एक बिस्तर पर सोते हैं, वो लोग, एक-दूसरे को जन्मदिन या शादी की सालगिरह की मुबारकबाद, फेसबुक या ट्विटर के पन्नों पर ही प्रेषित क्यूँ करते हैं? कोई पूछे कि क्यूँ लोग अपने पति-पत्नी या बच्चे को बधाई या उनके प्रति प्रेम के उदगार, व्यक्तिगत तौर पर उनके सम्मुख, एकांत में नहीं दे सकते?

प्रेम संबंधों की प्रगाड़ता ह्रदय में महसूस होनी चाहिए, संवेदनाओं की गहरायी व्यवहार में प्रकट होनी चाहिए, उन भावनाओं की घटिया सार्वजनिक नुमाइश किस लिये? सामाजिक मीडिया पर कोई किसी प्रकार की सूचना दे वो तो समझ आता है पर अपने अन्तरंग संबंधों का भौंडा दिखावा, दुनिया के सामने आपसी प्रेम का लिजलिजा प्रकटीकरण, आखिर क्यूँ और किस लिए?   

हैरानी तो तब होती है जब लोग अपने सगे-सम्बन्धी या रिश्तेदार की मृत्यु के चंद घंटों बाद ही, मृत्यु की सूचना देने की बजाये, अपने प्रेम संबंधों के कसीदे लिखने लग जाते हैं. ये कैसी विचित्र आदत आई है आधुनिक समाज के पढ़े लिखे लोगों में कि वो अपने दुःख तक का प्रदर्शन एक चलचित्र की तरह करते हैं. समझ के परे है कि लोग हर समय, अपनी भावनाओं और संवेदनाओं के बाज़ारी प्रदर्शन में ही क्यूँ लगे रहते हैं? आखिर इससे हासिल क्या हो जाता है?

इसी सम्बन्ध में कुछ साल कि एक घटना मुझे याद आती है. कारगिल के युद्ध में सेना के एक नौजवान अफसर की मृत्यु हो गयी. वो शहीद क्यूंकि जयपुर शहर का रहने वाला था, इस कारण सारे शहर में एक शोक की लहर सी छा गयी और मीडिया ने उस नौजवान और उसके परिवार के बारे में कई वृतांत छापे. कई दिनों बाद, जब उस शहीद सैनिक का पार्थिव शरीर, सीमा से दिल्ली होते हुए जयपुर लाया जा रहा था तो राज्य सरकार ने घोषणा कि की शहीद की देह को जयपुर के राम निवास बाग़ के संग्रहालय के प्रांगण में, सार्वजनिक श्रद्धांजलि के लिए रखा जायेगा. इत्तेफाक से उस शहीद के मामा जी, कुछ वर्ष पूर्व, मेरे यहाँ क्लर्क का काम करते थे और इसी रिश्ते के चलते, शहीद की बहन ने मुझ से संपर्क कर, अपने सैनिक भाई की अंतिम यात्रा को मीडिया कवरेज कराने का निवेदन किया. मैंने उस आग्रह को नतमस्तक हो स्वीकार किया और अपने मीडिया साथियों को उनके चैनल में श्रधांजलि के समाचार को यथावत जगह देने का निवेदन किया. मुझे याद है कि इस प्रयास के अंतर्गत, एनडीटीवी से लेकर दूरदर्शन तक सभी चैंनलों ने उस नौजवान शहीद की याद को यथोचित सम्मान दिया.

लेकिन मुझे आश्चर्य तब हुआ जब अन्तेष्टी से कुछ घंटे पहले उस सैनिक की बहन ने लगातार मुझे करीब एक दर्जन फोन कर, बार-बार दबाव डाला कि मैं एनडीटीवी चैंनल पर उसका साक्षात्कार करवा दूँ. यहाँ ये बताना उचित होगा कि उस वक्त शहीद सैनिक का पार्थिव शरीर, सैन्य दस्ते द्वारा एक सजे धजे ट्रक पे आमेर के रास्ते जयपुर शहर में लाया जा रहा था और उनकी ये बहन, उसी ट्रक पर, देह के समीप बैठ, मुझे मोबाइल पर संबोधित कर रही थी. मैंने उस महिला को समझाने की कोशिश की कि पार्थिव शरीर के सम्पूर्ण श्रधांजलि समारोह का सजीव प्रसारण जा रहा था और जब भी संभव होगा, उसकी बात को प्रसारित करने का प्रयास किया जायेगा. पर वो बार-बार, फोन कर यही कहती रही कि “आप मेरा एनडीटीवी पर साक्षात्कार करवा दीजिये क्यूंकि मुझे अपने भाई के बारे में बात करनी है”. निकृष्ट आचरण की इससे बड़ी मिसाल और क्या होगी कि अंततः वो बोली, “देख लीजिये, अगर एनडीटीवी ने मेरा साक्षात्कार न लिया तो वो मेरे विशिष्ट इंटरव्यू से वंचित रह जायेंगे.” शहीद सैनिक के प्रति आदर भाव के कारण मैं ऐसा करने के लिये किसी को बाध्य नहीं करना चाहता था लेकिन उसकी धृष्टता देखिये कि आधे घंटे बाद, जब एडवर्ड मेमोरियल पर पार्थिव शरीर पर फूल चढ़ाये जा रहे थे तथा सारा माहौल ग़मगीन और संजीदा था, उस वक्त उस महिला ने पुनः फोन कर मुझे सूचित किया कि “आज तक”, “ज़ी न्यूज़” और “दूरदर्शन” ने उसका इंटरव्यू ले लिया था और मैं उसको उन समाचार चैंनल पर देख लूँ. यही नहीं, कुछ महीनों बाद, जब उसी महिला का मुझ से जयपुर की एक प्रतिष्ठित मार्केट में आमना-सामना हुआ तो उस सजी-धजी महिला ने मुझे उस दिन के साक्षात्कार में सहयोग न देने का उलाहना दिया जब कि सम्पूर्ण मीडिया की शानदार कवरेज मेरे ही प्रयासों से संभव हुई थी क्यूंकि वो शहीद सैनिक मेरे ही स्कूल का विद्यार्थी रहा था!  

ये एकमात्र घटना हो ऐसा नहीं है. लोग आजकल लगभग प्रत्येक दिन, निकृष्टता के नये आयाम रच रहे हैं. अजीब विरोधाभास है कि लोग बड़ी-बड़ी इमारतों में तो रहते हैं पर उनकी सोच, दृष्टिकोण और समझदारी इतनी घटिया, अमानवीय और अमानुषिक हैं कि उन पर तरस आता है. उनके पास भारी भरकम डिग्रीयाँ, भोग-विलास की अत्याधिक वस्तुएं तो ज़रूर हैं लेकिन विवेक और समझ बहुत कम हैं. लोगों के पास अपार संपत्ति है पर नैतिक मूल्यों के मामले में वो लोग पूरी तरह निर्धन और शून्य हैं. विख्यात और लोकप्रिय लोगों की कथनी और करनी में इतना अंतर आ गया है कि उनके ऊपर भरोसा करना भी अब मुश्किल हो गया है. कुछ दिन पहले कि बात है जब फिल्म जगत के एक सुपर सितारे ने अपनी माँ की पुण्यतिथि पर सोशल मीडिया पर लिखा कि “आज विश्व की सब से सुन्दर और सब से अच्छी माँ की पुण्यतिथि है. उनकी याद में मैंने आज मौन व्रत रखा है!” अब इस स्वप्रेम में डूबे महानायक को कौन बताये कि दुनिया के प्रत्येक बच्चे की नज़र में उसकी माँ सर्वश्रेष्ठ होती है तथा इस प्रकार के बेहूदा लेखन से आप दूसरों की माताओं का उपहास और अपमान कर रहे हैं. दूजे इस अहंकार ग्रसित अभिनेता से कोई पूछे की भाई तूने अगर मौन व्रत रखा है तो इसका सार्वजनिक ऐलान किस लिये?

मुझे तो जब कोई विख्यात विभूति या संस्था बहुत ज़ोर-शोर और कैमरों की फ़ौज को साथ ले कर कुछ करता दिखता है तो मुझे उस कार्य में इमानदारी कम और दिखावा ज़्यादा लगता है तथा उन विभूतियों की सनक और सोच पर तरस आता है कि वो सार्वजनिक प्रशंसा प्राप्त करने के लिये  कितने प्रपंच करते हैं. एक पेड़ को रोंपने या गरीब को एक कम्बल देने में जब पचास व्यक्ति मिल कर फोटो खिंचाते हैं तो मुझे वो भांडगिरी लगती है, समाज सेवा नहीं.

इसी वजह से टीवी चैंनलों के कैमरों से लैस हो कर जब देश का शीर्ष नेता अपनी माँ के घर जाता है और माँ के पैर धो कर, अपने सात अलग-अलग कोण से खींचे गये चलचित्रों को सारे विश्व को दिखाता है तो मुझे उस व्यक्ति की नीयत पर शक होता है. हम तो अपनी माँ के चरण छूने के लिए, कैमरे साथ ले कर के नहीं चलते और न ही हमें पैर छूने का कोई प्रमाणपत्र सब के सामने रखते हैं. अपनी माँ की सेवा करना हर बच्चे का नैतिक कर्म है, ज़िम्मेवारी है तथा अन्तरंग संबंधों की संवेदना और ताकत ही मनुष्य की निजी धरोहर है जिसका सार्वजनिक मंचन या ढिंढोरा, पवित्र रिश्तों का बाज़ारीकरण और अपमान हैं. बहुत दुखद है कि भारत जैसे राष्ट्र का एक विख्यात नागरिक, अपने राजनैतिक फायदे और अपने अनुयायीयों को प्रभावित करने के लिये, अपनी माँ का इस्तेमाल एक इश्तेहार की तरह करता है. अंधभक्त भले ही किसी मजबूरी तहत ऐसे व्यवहार को सही ठहराते हों पर वास्तव में, ये प्रेम, वात्सल्य और स्नेह का स्वाभाविक सम्प्रेषण नहीं बल्कि मानवीय संबंधों को दोहने का निकृष्टतम कृत्य है!

बड़े शहरों में हर जगह कोई ना कोई भिखारी खड़ा नज़र आता है जिससे पिण्ड छुड़ाना बहुत मुश्किल होता है। लाख कोशिश कीजिये, इनसे पार पाना बहुत कठिन होता क्योंकि रोनी सी सूरत बना, कोई झूठी कहानी गढ़, अपना उल्लू सीधा करना ये खूब जानते हैं।

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दीपक महान (वृतचित्र निर्देशक व स्वतंत्र टिप्पणीकार)

सदियों से सर्वविदित है कि भाषा ही घर, समाज और संस्कृति की धुरी है और जीवन के प्रत्येक क्षण को ही नहीं, अवचेतन मन को भी भाषा प्रभावित करती है। भाषा का समुचित ज्ञान, मानव-संवाद के लिए अति आवश्यक है क्यूंकि इससे भावनाओं और विचारों को व्यक्त करने में आसानी होती है और समाज को संस्कृति और संस्कार मिलते हैं। इसीलिए बहुत पीड़ा होती है ये देख कि भारत में क्यूँ सार्वजनिक एवं राजकीय आयोजनों में अक्सर हिन्दी को वो यथोचित सम्मान नहीं मिलता, जिसका इस राष्ट्रभाषा को अधिकार है। ये बात समझ से परे है कि क्यूँ सरकार, जो हिन्दी अपनाने का न केवल आग्रह करती है बल्कि प्रतिवर्ष १४ सितम्बर को हिन्दी दिवस भी मानती है, अपनी कार्यशैली में हिन्दी का निरंतर तिरस्कार करती है?

सरकार की कथनी और करनी के अन्तर पर मनन करें तो पायेंगे कि हिन्दी भाषी लोग ही हिन्दी के सब से बड़े दुश्मन हैं और चूंकि अधिकारी वर्ग इन्हीं लोगों का प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए  हिन्दी से सौतेला व्यवहार निश्चित हो जाता है। हमारे देश में प्रत्येक दिन हिन्दी की हत्या होती है क्यूंकि हिन्दी का पाठक ना तो हिन्दी का समर्थन करता है, न ही हिन्दी की किताब खरीद कर पढ़ता है। हिन्दी भाषी पाठक हीन भावना से ऐसा ग्रसित रहता है कि किसी के सम्मुख हिंदी की पुस्तक भी नहीं खोलता, बल्कि बेवजह अंग्रेज़ी को मुंह मारता है। यही वजह है कि हिन्दी साहित्यिक कृतियों की बिक्री नगण्य हो गई है और हिन्दी की विशिष्ट पत्रिकाएँ  “धर्मयुग”, “सारिका”, “दिनमान” “माधुरी”, “कादंबिनी” आदि ने पाठक की उपेक्षा के कारण दम तोड़ दिया है, जब की अंग्रेज़ी की फूहड़ से फूहड़ पत्रिका भी फल फूल रही है क्यूंकि अंग्रेज़ी की दासता हमारी मानसिक कमजोरी है. इसी कारण, हिन्दी नाटक और साहित्यिक सम्मेलन भी दर्शकों के अभाव में दम तोड़ रहे हैं जब की अंग्रेज़ी के आयोजनों में बेतरतीब भीड़ होती है।

हिन्दी की प्रतिष्ठा को ठेस पहुचाने में संवाद वाहकों (मीडिया) का हाथ भी कम नहीं हैं। हिन्दी के समाचार पत्र, रेडियो और टीवी चैनलों में आज जिस प्रकार अंग्रेज़ी भाषा की शब्दावली का बेवजह इस्तेमाल हो रहा है, वो निकृष्टता की पराकाष्ठा है। निजी टीवी और रेडियो प्रसारण को छोड़िए, जिस आकाशवाणी और दूरदर्शन को एक समय हिन्दी के व्याकरण और उच्चारण का पर्याय माना जाता था, वहाँ भी उद्घोषकों और विशेषज्ञों द्वारा प्रतिदिन हिन्दी की जो दुर्गति की जाती है उस पर रोना आता है।   

पर घने अंधकार में भी एक स्वर्णिम प्रकाश का आभास होता है और वो ये कि आज देश ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व में हिन्दी भाषा की ओर रुझान बढ़ रहा है। भारत के सभी प्रांतों के लोग आज हिन्दी बोलते और समझते हैं, हिन्दी में संवाद करते हैं और हिन्दी के गीतों और कहानियों को पसंद करते हैं। लेकिन उसकी व्यापक और सामाजिक स्वीकृति तभी होगी जब संकीर्ण सोच वाले हिन्दी को एक समूह विशेष की भाषा बताना बंद कर देंगे क्यूंकि सभी भाषाएँ सम्माननीय हैं और सभी हमारी गंगा-जमुनी संस्कृति का हिस्सा हैं। पर चूंकि हिन्दी भाषा से राष्ट्र की एक विशिष्ट पहचान जुड़ी हुई है, इसलिए राष्ट्रभाषा की उत्कृष्टता, गरिमा और संरक्षण का हमें विशेष ध्यान रखना होगा। हमें रूस, चीन, जर्मनी जैसे देशों से सीखना होगा जो अपनी राष्ट्रीय भाषा के उपयोग से दुनिया के हर क्षेत्र में अपनी पहचान बना रहे हैं, वरना हमेशा की तरह, दुनिया की सर्वश्रेष्ठ भाषाओं में से एक हो कर भी, हिन्दी अपनों की उपेक्षा के कारण लज्जित होती रहेगी।  

🌷!! भावपूर्ण श्रद्धांजली !! 🌷

(1922 -2021)

1578851566027

दीपक महान
(वृतचित्र निर्देशक व् विश्लेषक)

अभिनय के आसमान में दिलीप कुमार ध्रुव तारे के समान हैं संसार में ऐसे अभिनेता कम हुए हैं जिन्होनें जीवन पर्यंत “एक वक्त पर एक फिल्म” के उसूल पर चलने का साहस किया हो, लेकिन कम काम के बावजूद, दुनिया में फिल्म-अभिनय के व्याकरण के जो दो-चार बड़े रचयिता हुए हैं, उनमें उनका अदद मुकाम है जीवंत अभिनय के कारण, दिलीप कुमार को अभिनय का बेताज बादशाह माना जाता है और उनकी अद्वितीय उपलब्धियां हासिल करना बेशक दुर्लभ हो मगर ये निर्विवाद है कि उनकी आभा, सदैव फिल्म-कला का मार्ग प्रशस्त करेगी

अपार प्रसिद्धि के बावजूद, दिलीप कुमार इश्तेहारी व्यवहार और बड़बोलेपन की जीवन शैली से कोसों दूर रहे इसी कारण, लोग उनकी फ़िल्मी उपलब्धियों और किरदारों से तो खूब परिचित रहे, पर दिलीप कुमार के व्यक्तित्व और घरेलू जीवन से सर्वथा अनभिज्ञ रहे हैं मेरा सौभाग्य रहा कि मुझे न केवल उनसे मिलने के कई मौके मिले बल्कि उनकी आत्मकथा “द शैडो एंड द सबस्टेंस” के विडिओ कथानक बनाने के दौरान, उनकी पत्नी सायरा बानो ने मुझे उनके अनूठे व्यक्तित्व से अवगत कराया मेरे ह्रदय पर उनकी इंसानीयत अंकित है जिसने मुझे बताया कि अद्भुत हो कर भी वो कितने संवेदनशील और ज़मीन से जुड़े इंसान थे

दिलीप साहब बहुत कम बोलते थे पर जब बोलते तो लगता मानों फूल बरस रहे हों क्यूंकी उनके लफ़्ज़ों का चुनाव, उनकी आवाज़ में गुंथे हुए भाव, कशिश पैदा करते थे तिस पर उनकी आँखों में एक ऐसी नमीं और गहराई थी कि श्रोता अपने आप उनकी गिरफ्त में कैद हो जाता था मैंने उनसे ज़्यादा मंत्रमुग्ध करने वाला वक्ता आज तक नहीं देखा जब कि मैंने इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी, नीरज और अमिताभ बच्चन जैसी शख्सीयतों को गज भर की दूरी से सुना है हिंदी, अंग्रेज़ी, उर्दू, पंजाबी, फारसी, बांगला, मराठी और तमिल जैसी भाषाओं में उनको महारत हासिल थी और उनकी सहज क्षमता के बारे में जब उनसे एक बार मैंने सरिस्का में पूछा तो वो हंस कर बोले, “जनाब इसके पीछे सालों की वो मेहनत छुपी हुई है जिसका लोगों को पता नहीं है

शब्द के पीछे अनलिखे चरित्र को उभारने की कोशिश में वो अपने से कई सवाल करते थे और यही वजह है की “देवदास”, “गंगा-जमुना”, “आदमी”, “मुग़ले-आज़म” और “राम और श्याम” जैसे कई किरदारों को उन्होने यादगार बना दिया “आदमी” फिल्म में उनका व्हील-चेयर पे बैठे हुए कहानी सुनाने का दृश्य आज भी सिने-प्रेमियों के रौंगटे खड़े कर देता है, पर बिरले जानते है कि अद्भुत सृजन की लगन के कारण उन्होनें निशक्त रोगियों का कितना गहन अध्ययन किया था और कैसे “कोहिनूर” के प्रसिद्ध गीत “मधुबन में राधिका नाची रे” के लिये सितार बजाने की शिक्षा ली थी वैसे वो ट्रम्पेट और पियानो भी बखूबी बजाना जानते थे

साहित्य के शौक़ीन दिलीप साहब से “अन्ताक्षरी” में जीतना नामुमकिन था क्यूंकि उन्हें सैंकड़ों गीत और ग़ज़ल याद थे वो अगर शेक्सपीयर के नाटकों के संवाद सुना सकते थे तो ग़ज़ल और भजन भी गा सकते थे रफ़ी साहब की आवाज़ को परदे पर अपना चेहरा देने वाले दिलीप साहब, खुद भी बहुत अच्छा गाते थे मैंने उनको हारमोनियम बजाते, प्रसिद्ध भजन “सुख के सब साथी, दुःख में ना कोई” को कल्याणजी-आनंदजी और जावेद अख्तर को सुनाते देखा है एक ज़माने में वो हर सुबह, नौशाद और रफ़ी साहब के साथ बैडमिंटन खेलते थे लेकिन भूतपूर्व भारतीय क्रिकेट कप्तान पटौदी के मुताबिक “दिलीप साहब अगर चाहते तो क्रिकेट में भी नाम कमा सकते थे क्यूंकि वो आला दर्जे के बल्लेबाज़ थे

दिलीप कुमार की काबलियत कभी सरकारी तमगों या सिफारिशों की मोहताज नहीं रही अपने व्यक्तित्व को इश्तेहार ना बनने देने के लिये, उन्होनें सैंकड़ों विज्ञापनों के प्रस्ताव ठुकरा दिये “जीवन बीमा निगम” के विज्ञापन के लिये उन्होनें प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के प्रस्ताव को भी अस्वीकार कर दिया था जब कि वो दोनों एक दूसरे के अभिन्न मित्र और प्रशंसक थे पर दूसरी तरफ, नेत्रहीनों की सेवा के लिए उन्होनें सालों तक, कई बार, सार्वजनिक मंचों पे जा कर चन्दा इकठ्ठा करने का निस्स्वार्थ कार्य किया

दिलीप कुमार की बहुमुखी प्रतिभा का आधार उनकी सजग मानवीयता और करुणा ही थी इसीलिये उन्होनें जो किरदार किये, उन्हें कोई और नामचीन कलाकार उतनी सहजता और आसानी के साथ अदा नहीं कर पाता जितनी आसानी से उन्होनें किया था वो उन गिने-चुने कलाकार में थे जिन्हें मानव समाज की ज़रूरतों और कर्तव्यों की समझ थी और जो अंतर्मन के द्वंदों के प्रति ईमानदार थे यही वजह है जो दिलीप कुमार को दूसरे कलाकारों से अलग कर के एक विशिष्ट गरिमा देती है अफ़सोस, संवाद की दुनिया का ऐसा अनूठा और दिलेर व्यक्ति कई साल से अपनी याददाश्त से वंचित रहा हालाँकि उन्हें बड़े लाड-प्यार के साथ सायरा बानों ने संभाला लेकिन ये तय है की विश्व के फिल्म इतिहास में दिलीप कुमार का नाम हमेशा बहुत आदर और श्रद्धा से लिया जाएगा

प्रसिद्ध पटकथा और संवाद लेखक सागर सरहदी उन बिरले लोगों में से थे जिन्होनें कभी भी अपनी प्रसिद्धी और पुरुस्कारों को अपने व्यक्तित्व पे हावी नहीं होने दिया और ना ही कभी बाज़ार की ताकतों के आगे झुक कर, अपनी कलम को शर्मिंदा किया. यही वजह है कि तमाम कलाओं के व्यावसायिकरण के बावजूद, “नूरी”, “अनुभव”, “कभी कभी”, “सिलसिला”, “चांदनी”, “कहो ना प्यार है” और “बाज़ार” जैसी लगभग पंद्रह सुपर हिट फिल्मों की पटकथा-संवाद लिखने वाला ये कम्युनिस्ट विचारक और लेखक, एक आम आदमी की तरह जीता रहा.

सागर सरहदी को आप मुंबई की बस या रेलगाड़ी में सफ़र करते हुए देख सकते थे और ऐसा नहीं है कि सागर सरहदी कार नहीं खरीद सकते थे या ऐशो-आराम से जी नहीं सकते थे. पर उन्होनें बड़े-बड़े दबावों के बावजूद अपनी कलम और ज़ुबान की साफगोई को बरकरार रखने की खातिर, ज़िंदगी में बड़ी भारी कीमत चुकाई. ऐसा भी नहीं है कि उनको सड़क, बस और रेल के सफ़र माफिक नहीं आते थे क्यूंकि उनके मुताबिक: “मैं इस धरती का एक साधारण आदमी हूँ और हकीकत में जीना पसंद करता हूँ” तथा उनका मानना था कि अगर “मैं भीड़ की जद्दो-जहद का हिस्सा नहीं बनूँगा तो फिर रोज़मर्रा के उस ज़मीनी एहसास से कट जाऊँगा जिससे किसी भी लेखक को कभी दूर नहीं होना चाहिये”. सागर साहब इतने सादा तरीके से ज़िंदगी जीते थे कि जो कोई भी उनसे पहली बार मिलता तो उसे यकीन ही नहीं होता था कि यही वो शख्स है जिसने हिंदी फिल्म उद्योग की बड़ी-बड़ी फिल्में लिखी हैं और जिसकी कलम ने अमिताभ बच्चन, शशी कपूर, संजीव कुमार, शबाना आज़मी और स्मिता पाटिल से लेकर बासु भट्टाचार्य, यश चोपड़ा और राकेश रौशन को अपना दीवाना बना दिया था.

उम्र के फासले के बावजूद, मेरी और सागर साहब की करीब 34-35 साल की दोस्ती बिना किसी लाग-लपेट के रही और हमारी खूब छनी. अगर वो बेबाक बोलते थे तो मैं खुद भी सच्चाई और साफ़गोई के लिये स्कूल के ज़माने से बदनाम रहा हूँ, लेकिन उनका व्यवहार मेरे प्रति हमेशा दोस्ताना ही रहा. हमारे बीच वैचारिक आदान-प्रदान के अलावा कभी कोई व्यावसायिक लेन देन नहीं हुआ; ना मैंने उनसे किसी तरह की कोई फरमाइश की, ना उन्होनें मुझ से कभी किसी प्रकार की कोई चाह रखी. 1995 के बाद उनकी माली हालत खराब हो गयी जिसका दोष उनकी अव्यवस्थित कार्यशैली और लापरवाही को जाता था, लेकिन तमाम वित्तीय झटकों के बावजूद, इस छोटे कद के बड़े दिलवाले लेखक के कामकाज के तरीके में कोई फर्क नहीं आया.

फिल्म लेखन की मसरूफीयात के बावजूद, सागर ने इप्टा (इंडियन पीपल्स थियेटर) के रंगमंच से कभी नाता नहीं तोड़ा था लेकिन अपने कठिन दौर में भी उन्होनें नवज्ज़ुद्दीन सरीखे, संघर्षरत नौजवान लड़के-लडकीयों को संबल दिया, उनको लेकर ड्रामे किये और हर शाम कई लड़के-लड़कीयों को थियेटर की बारीकीयाँ समझाते रहे. आम लोगों के वास्ते उन्होनें जो ड्रामे किये उनमें पैसा उनकी जेब से ही लगता था और उनके नाटक में सभी तरह के लोगों का स्वागत होता था; जिन्होनें टिकिट खरीदे हों उनका भी और जो टिकिट खरीद सकने की क्षमता ना रखते हों, उनका भी. पृथ्वीराज कपूर की तरह, सागर सरहदी भी नाटक को देश के हर कोने में मशहूर करना चाहते थे पर अफ़सोस उनकी प्रगतिशील और अभिनव सोच का ज़्यादातर लोग ने साथ नहीं दिया और ये प्रयोग, उनकी वित्तीय कठिनाईयों के कारण, बंद हो गया. हिट फिल्में लिखने के बावजूद, उनकी कड़वी ज़ुबान ने कई लोगों को उनके खिलाफ कर दिया और सागर साहब फ़िल्मी दुनिया के हाशिये पर आ गये. वर्ना जिस मुकाम के वो लेखक थे और जिस तरह की कामयाब फिल्मों की उनकी फेहरिस्त थी और जिस तरह लोग उनकी लेखनी के कद्रदान थे, उनके लिये काम की कोई कमी ना रहती.

मुझ से लगाव होने के कारण वो अपने कई विचार मेरे साथ इसलिये बाँटते थे क्यूंकि उन्हें यकीन था कि मैं उन्हें अच्छी राय दे सकूँगा. एक बार उनकी किस्सागोई ख़त्म होने के बाद, मैंने उनसे पूछा “सागर साहब, आपने कभी शादी नहीं की, फिर भी आप इतनी शानदार रोमांटिक कहानियाँ और संवाद कैसे लिख लेते हैं?”

वो ज़ोर से हँसे और बोले “यार महान, शादी नहीं की तो क्या, रोमांस तो बहुत किये हैं ना हमनें”.

उस जुलाई की दोपहर, उनके अंधेरी स्थित ऑफिस में हम दोनों अकेले थे. चाय की चुस्कीयों और बरसात की बूंदों की आवाज़ में, वो संजीदा हो कर बताने लगे कि कैसे उन्होनें कभी किसी रिश्ते को खुद नहीं तोड़ा पर उनकी फक्कड़ तबीयत के रहते, कोई भी औरत उनके साथ हमेशा साथ रहने को राजी नहीं हुई. लेकिन उन्हें किसी से कोई शिकायत न थी और ना ही किसी औरत के बारे में उन्होनें कोई अपशब्द बोला. बल्कि वो हर औरत के संग बीतें समय को अपनी दौलत और ताकत बताते रहे क्यूंकि हर रिश्ते ने उन्हें कुछ न कुछ नया सिखाया था जिससे उनकी सोच और कलम को नयी दिशा मिली थी. भावुक हो कर बोले, “यार महान, बिना औरत के दुनिया का तसव्वुर करना भी मुश्किल हो जाता है. अगर ज़मीन पर औरत न होती तो इंसान कभी कोई तरक्की न कर पाता क्यूंकि औरत ने ही मां, बेटी, बीवी, बहिन और भाभी के रूप में हर रिश्ते को इज्ज़त दी है, जज़्बात दिये हैं, रूहानी ताकत बख्शी है.”

मुझे अक्सर ताज्जुब होता था कि औरत की बेइंतहा इज्ज़त करने वाले सागर सरहदी के मुंह से अक्सर धाराप्रवाह गालीयाँ क्यूँ निकलती हैं हालांकि ये कहना पड़ेगा कि मेरे प्रति उन्होनें कभी कोई अपशब्द का प्रयोग नहीं किया. मैंने खुद आज तक कभी कोई गाली नहीं दी है और इसलिये जब कभी वो गाली-गलौज करते तो मुझे काफी कोफ़्त होती थी. एक दिन मैंने उनसे कह ही दिया कि मर्दों द्वारा दी जाने वाली सारी गालियाँ, औरतों की बेईज्ज़ती करती हैं, उन्हें नीचा दिखाती हैं, तब उन जैसा ज़हीन लेखक ऐसा गुनाह क्यूँ करता है? कुछ देर स्तब्ध रहने के बाद, सागर साहब ने निहायत ईमानदारी से अपनी कमज़ोरी स्वीकार कर ली. अपनी गलत आदत को एक मानसिक रोग बता, उन्होनें इसे वक्त और हालात की देन कहा जिसे उन्होनें बेवजह अपना लिया था. उन्होनें माना कि जैसे वो अपने बुज़ुर्गों के सामने गाली नहीं देते थे, वैसे ही अगर वो दूसरी जगहों पर भी अपनी ज़ुबान पर काबू रखते थे तो शायद ये कमजोरी पैदा नहीं होती पर क्यूंकि उन्होनें ऐसा नहीं किया, इस वजह से गाली उनकी बातचीत में एक तकिया-कलाम की तरह शुमार हो गयी.

उस शाम हम नें बहुत देर तक बातचीत की और तीन चार दफा चाय भी पी. चाय की ही चुस्कीयों के दौरान उन्होनें मुझ से वो लफ्ज़ कहे जो मेरे लिये किसी भी इनाम से कम ना थे. वो बोले, “यार महान, एक अच्छी ज़ह्नीयत के साथ-साथ तुम्हारी सोच भी बहुत अच्छी है. जैसे तुम सवाल पूछते हो और जैसे तुम ख्याल रखते हो, उससे तुम्हारी ईमानदारी और इंसानीयत झलकती है. मुझे लगता है तुम बहुत अच्छा लिखोगे”.

एक संवेदनशील लेखक की इंसानीयत में हमेशा अंतर्मन की सोच और सामाजिक प्रतिबद्धतता का एहसास होता है जिसकी आजकल के सृजनकारों और कलाकारों में बहुत कमी पायी जाती है. लोग पैसों के लिये अपने ज़मीर को बेच कर किस तरह समझौते करते हैं, ये आज की फिल्मों के लेखन से साफ़ ज़ाहिर होता है. हो सकता है बाज़ार की व्यावसायिक दौड़ में सागर साहब ने कुछ भूलें की और वो पीछे रह गये पर उनके जैसे धैर्यवान लेखक-निर्देशक की रूह में जो उजाला रहता है, वही मुल्क और समाज को परिपक्वता और नैतिक दृढ़ता प्रदान करते हैं.