Encouraged by his response, I disclosed that I had two scripts of mine for which I was looking for a producer. In a flash, he replied, “Great, work with me in my next film. Once it is known that you have been an associate director with me, they will give you finance to direct your own story.” I accepted his advice but alas, he died in London before he could start his new venture that was to be shot overseas

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सदियों से सर्वविदित है कि भाषा ही घर, समाज और संस्कृति की धुरी है और जीवन के प्रत्येक क्षण को ही नहीं, अवचेतन मन को भी भाषा प्रभावित करती है। भाषा का समुचित ज्ञान, मानव-संवाद के लिए अति आवश्यक है क्यूंकि इससे भावनाओं और विचारों को व्यक्त करने में आसानी होती है और समाज को संस्कृति और संस्कार मिलते हैं। इसीलिए बहुत पीड़ा होती है ये देख कि भारत में क्यूँ सार्वजनिक एवं राजकीय आयोजनों में अक्सर हिन्दी को वो यथोचित सम्मान नहीं मिलता, जिसका इस राष्ट्रभाषा को अधिकार है। ये बात समझ से परे है कि क्यूँ सरकार, जो हिन्दी अपनाने का न केवल आग्रह करती है बल्कि प्रतिवर्ष १४ सितम्बर को हिन्दी दिवस भी मानती है, अपनी कार्यशैली में हिन्दी का निरंतर तिरस्कार करती है?

सरकार की कथनी और करनी के अन्तर पर मनन करें तो पायेंगे कि हिन्दी भाषी लोग ही हिन्दी के सब से बड़े दुश्मन हैं और चूंकि अधिकारी वर्ग इन्हीं लोगों का प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए  हिन्दी से सौतेला व्यवहार निश्चित हो जाता है। हमारे देश में प्रत्येक दिन हिन्दी की हत्या होती है क्यूंकि हिन्दी का पाठक ना तो हिन्दी का समर्थन करता है, न ही हिन्दी की किताब खरीद कर पढ़ता है। हिन्दी भाषी पाठक हीन भावना से ऐसा ग्रसित रहता है कि किसी के सम्मुख हिंदी की पुस्तक भी नहीं खोलता, बल्कि बेवजह अंग्रेज़ी को मुंह मारता है। यही वजह है कि हिन्दी साहित्यिक कृतियों की बिक्री नगण्य हो गई है और हिन्दी की विशिष्ट पत्रिकाएँ  “धर्मयुग”, “सारिका”, “दिनमान” “माधुरी”, “कादंबिनी” आदि ने पाठक की उपेक्षा के कारण दम तोड़ दिया है, जब की अंग्रेज़ी की फूहड़ से फूहड़ पत्रिका भी फल फूल रही है क्यूंकि अंग्रेज़ी की दासता हमारी मानसिक कमजोरी है. इसी कारण, हिन्दी नाटक और साहित्यिक सम्मेलन भी दर्शकों के अभाव में दम तोड़ रहे हैं जब की अंग्रेज़ी के आयोजनों में बेतरतीब भीड़ होती है।

हिन्दी की प्रतिष्ठा को ठेस पहुचाने में संवाद वाहकों (मीडिया) का हाथ भी कम नहीं हैं। हिन्दी के समाचार पत्र, रेडियो और टीवी चैनलों में आज जिस प्रकार अंग्रेज़ी भाषा की शब्दावली का बेवजह इस्तेमाल हो रहा है, वो निकृष्टता की पराकाष्ठा है। निजी टीवी और रेडियो प्रसारण को छोड़िए, जिस आकाशवाणी और दूरदर्शन को एक समय हिन्दी के व्याकरण और उच्चारण का पर्याय माना जाता था, वहाँ भी उद्घोषकों और विशेषज्ञों द्वारा प्रतिदिन हिन्दी की जो दुर्गति की जाती है उस पर रोना आता है।   

पर घने अंधकार में भी एक स्वर्णिम प्रकाश का आभास होता है और वो ये कि आज देश ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व में हिन्दी भाषा की ओर रुझान बढ़ रहा है। भारत के सभी प्रांतों के लोग आज हिन्दी बोलते और समझते हैं, हिन्दी में संवाद करते हैं और हिन्दी के गीतों और कहानियों को पसंद करते हैं। लेकिन उसकी व्यापक और सामाजिक स्वीकृति तभी होगी जब संकीर्ण सोच वाले हिन्दी को एक समूह विशेष की भाषा बताना बंद कर देंगे क्यूंकि सभी भाषाएँ सम्माननीय हैं और सभी हमारी गंगा-जमुनी संस्कृति का हिस्सा हैं। पर चूंकि हिन्दी भाषा से राष्ट्र की एक विशिष्ट पहचान जुड़ी हुई है, इसलिए राष्ट्रभाषा की उत्कृष्टता, गरिमा और संरक्षण का हमें विशेष ध्यान रखना होगा। हमें रूस, चीन, जर्मनी जैसे देशों से सीखना होगा जो अपनी राष्ट्रीय भाषा के उपयोग से दुनिया के हर क्षेत्र में अपनी पहचान बना रहे हैं, वरना हमेशा की तरह, दुनिया की सर्वश्रेष्ठ भाषाओं में से एक हो कर भी, हिन्दी अपनों की उपेक्षा के कारण लज्जित होती रहेगी।  

आम-आदमी बहुत बेअक्ल है तभी तो बूझ ही नहीं पाता कि सरकार चीज़ों के दाम इसलिए नहीं बढ़ाती कि उद्योगपति मुनाफा कमा सकें बल्कि इसलिए कि आम-आदमी समृद्धशाली बन सके।

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