रंगमंच पर सजीवता से दर्शकों से संवाद
रंगमंच में कलाकार की निकटता से दर्शक विभिन्न भावनाओं और घटनाक्रम में भागीदारी बनता है जिससे उसके अवचेतन में समरसता आ जाती है। जीवन के उतार–चढ़ाव का अहसास सिनेमा और टेलीविजन में भी होता है पर वहां वो एक चमत्कारिक तमाशा होता है जबकि रंगमंच पर, सजीव कलाकारों के बीच, दर्शक को सार्थक भाव शुद्धि का अनुभव होता है जिसे दार्शनिक अरस्तू ने ‘कथारसिस‘ का नाम दिया है। यूनानी नाटकों में इसी सजीवता के कारण इसे यूरोप और दुनिया में लोकप्रियता मिली।
रंगमंच को अगर मानव संस्कृति की सब से पुरानी परंपरा और धरोहर कहा जाये तो गलत न होगा। अभिव्यक्ति मनुष्य की स्वाभाविक वृति है और शायद इसी की तृप्ति ने नाट्य विधा को जन्म दिया। इतिहास गवाह है कि जो सभ्यता जितनी परिपक्व थी, वो उतनी ही रंगमंच में पारंगत थी तथा भारतीय, ग्रीक और रोमन सभ्यताओं ने रंगमंच की जो सशक्त संरचना की, उसी ने सिनेमा और टेलीविजन के लिये नींव के पत्थर का काम किया।

भारत में अगर कालिदास, भावभूती और हर्ष की सार्थक रचनाओं ने रंगमंच को गौरवान्वित किया तो वहीं यूरिपिडीस, एकीलिस और सोफोक्लीस ने ग्रीक तथा एंडरोनिकस, प्लौटस और टेरेंस ने रोमन थियेटर में मानव जीवन के विभिन्न रंगों को उकेर, रंगमंच को सजीव किया। इन सभ्यताओं में रंगमंच इतना प्रभावशाली था कि संगीत, नृत्य और गायन के सम्मिश्रण के साथ-साथ, यहां गुरुजनों ने नाट्य क्रिया की नियमावली तक लिख डाली। भारत में जहाँ भरत मुनी ने “नाट्यशास्त्र” द्वारा अभिनय, मंच सज्जा और वेशभूषा तक की विस्तारपूर्वक व्याख्या कर डाली, वहीं एरिस्टोटल ने हमें “पोएटिक्स” से साहित्यिक सिद्धांतों के द्वारा नाटक के कथानक के विभिन्न पहलुओं से अवगत कराया।
जो लोग रंगमंच को सिर्फ मनोरंजन का पर्याय मानते हैं वो भूल जाते हैं की नाट्य विधा लोक अभिव्यक्ती का सशक्त माध्यम होने के साथ-साथ, सामाजिक विश्लेषण का सटीक आईना भी है। विशेषज्ञों के अनुसार शिक्षा का सबसे सशक्त माध्यम नाट्य कला है क्यूंकि इससे कठिनतम विषय भी खेल खेल में समझाये जा सकते हैं। यही नहीं, मनोवैज्ञानिक मानते हैं की रंगमंच से गंभीर बीमारियों का भी उपचार किया जा सकता है और कई शोध बतलाते हैं कि कैसे कैंसर पीड़ित दर्शकों द्वारा थियेटर देखने से उनके एकाकीपन में कमी और सकारात्मक दृष्टिकोण में वृद्धी होती है।
उपरोक्त निष्कर्ष पर किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए क्यूंकि रंगमंच में कलाकार के सामीप्य से दर्शक विभिन्न भावनाओं और घटनाक्रम में भागीदारी बनता है जिससे उसके अवचेतन में समरसता आ जाती है। जीवन के उतार-चढ़ाव का एहसास सिनेमा और टेलीविजन में भी होता है पर वहां वो एक चमत्कारिक तमाशा होता है जबकि रंगमंच पर, सजीव कलाकारों के बीच, दर्शक को सार्थक भाव शुद्धी का अनुभव होता है जिसे एरिस्टोटल ने “कथारसिस” का नाम दिया है। बेशक थियेटर में समय, स्थान और क्रिया की अपनी सीमाएं हैं, पर कल्पना की उड़ान और सजीव प्रस्तुतीकरण की अनिश्चितता, दर्शक को न केवल अभिभूत करती है बल्कि अधिक संवेदनशील भी बनाती है।
मानव संस्कृति की रूह बेशक रंगमंच में बसी हो पर डिजिटल युग में रंगमंच को दर्शक की उपस्थिती और समर्थन के लिये फिल्म, टेलीविजन, इन्टरनेट और मोबाइल पर मिलने वाले सस्ते मनोरंजन के साथ संघर्ष करना पड़ रहा है। संसाधनों की कमी, बढ़ती व्यवसायीकता और सरकारी एवं गैर-सरकारी क्षेत्रों की उपेक्षा ने नाट्य मंचन के लिए बहुत सी मुश्किलें खड़ी कर दी हैं। क्यूंकि टीवी और फिल्में, लेखकों को ज़्यादा पैसा देती हैं इसलिये नाट्य लेखन कमज़ोर हो रहा है पर सच ये है कि जहाँ नाट्य लेखक का रंगमंच पर सम्पूर्ण आधिपत्य रहता है वहीं फिल्म और टीवी में अधिकतर लेखक, निर्माण कम्पनीयों और सितारों की कठपुतली बन रह जाते हैं।
इसीलिए पैसे के अभाव के बावजूद, जयपुर से लेकर जोहांसबर्ग तक और लन्दन से ले कर टोक्यो तक जो कलाकार आज भी रंगमंच में सक्रिय हैं, उनके लिये हमारा सर श्रद्धा से झुक जाता है। यही वो जागरूक सिपाही हैं जिनके समर्पित योगदान से नाट्य कला, समाज को नयी दिशायें और प्रेरणा देती है। ये सर्वविदित है कि हर युग में रंगमंच के कलाकारों ने संघर्ष किया और उन्हीं के दम पर समाज में ढेरों तब्दीलियाँ आयीं पर ये भी सच है कि तूफ़ान में दिये की लौ प्रज्वलित करने में उनका साथ हमेशा कुछ असाधारण निवेशकर्ताओं ने दिया जिन्हें रंगमंच से प्रेम था। उम्मीद की जानी चाहिये की हमारे देश में भी संपन्न वर्ग के नागरिक, सामाजिक हित में रंगमंच के उत्थान के लिए निवेश करेंगे। रंगमंच को प्रोत्साहित करना सबका उत्तरदायित्व होना चाहिए क्यूंकि रंगमंच, कलाकार से ज़्यादा, दर्शक को उसके समाज और उसकी हस्ती से पहचान कराता है। यही नहीं, रंगमंच, दर्शक को इंसान बनने के अवसर अवसर देता है और समर्थ रंगमंच ही एक समर्थ समाज की बुनियाद रखता है।
