शादी ना करने की ऐसी अद्भुत दलील, शायद एक बिरला इंसान ही अपनी माँ से कर सकता था और बेशक भगत सिंह इतिहास में अपने तरीके का अनोखा व्यक्तित्व था – निडर, सत्यव्रत, कर्तव्य निष्ठ, निष्काम कर्मयोगी। एक ऐसा योद्धा था जिसका कोई सानी नहीं था और आज 91 साल बाद भी उसकी तरह का दूसरा इंसान ढूंढे नहीं मिलता। तेईस साल की मासूम उम्र में भारत की आजादी के लिए उसने जो हँसते – हँसते कुर्बानी दी, उसकी जितनी भी तारीफ़ की जाये कम है। पर अफ़सोस, कि हम करोडो भारतवासी उन परमवीरों की शहादत को याद नहीं करते जिनके लहू से आज हमारा समाज जीवित है।

“तू ना रो माँ कि तू है भगत सिंह की माँ, मर के भी लाल तेरा मरेगा नहीं
घोड़ी चढ़ के तो लाते हैं दुल्हन सभी, हँस के हर कोई फांसी चढ़ेगा नहीं।।”

तेईस मार्च की तारीख एक बार फिर आ गई लेकिन किसी चैनल या रेडियो स्टेशन पर से भगत सिंह, राजगुरु या सुखदेव के सम्मान में कोई एक पंक्ति भी श्रधान्जली के रूप में प्रसारित नहीं हुई जब की निकृष्ट और लुंज पुंज से नेताओ के जन्मदिन या पुण्यतिथी पर सारा मीडिया तंत्र कसीदे पढता रहता है। किसी राजनेता या अभिनेता को भगत सिंह या उसके साथी याद नहीं आये क्योंकि वो शायद आज बिकने लायक सामग्री या विज्ञापन नहीं हैं और ना ही किसी राजनितिक वोट बैंक का हिस्सा। मुझे लगता है कि वो शायर बहुत मासूम थे जो समझते थे की शहीदों की बरसी पर लोग कृतज्ञता स्वरूप, हजारों की संख्या में उनकी मजारों पर मेले लगाएंगे। पर आईपीएल, डांस, फिल्म, फैशन, नफरत और हिंसा में लिप्त देशवासीयों को इतनी फुर्सत कहाँ की वो किसी शहीद को याद करें?

राजनीतिज्ञों और व्यापारियों के लिए ये शहीद इसलिए मायने नहीं रखते क्योंकि अंतर-राष्ट्रीय स्तर पर इनकी याद में कोई सेमिनार आयोजित नहीं होता। नेताओं को नोटों की मालाओं से फुर्सत नहीं है और जब जनता सेंसेक्स की सुई से ही देश की प्रगति नाप कर खुश हो रही है, तब शहीदों की फिक्र भला कौन करे? कितना भोला था भगत सिंह जिसने देशवासीयों को अपनी मृत्यु पर रोने या शोक करने से मना किया था पर उसका एक आग्रह भी था जिसे करोड़ो की भीड़ ने भुला दिया। भगत सिंह का आग्रह था :

“जब शहीदों की अर्थी उठे धूम से,
देश वालों तुम आंसू बहाना नहीं,
पर मनाओ जब आज़ाद भारत का दिन
उस घड़ी हमें भूल जाना नहीं,
लौट कर आ सके ना जहाँ में तो क्या,
याद बन कर दिलों में तो आ जायेंगे।।”

भगत सिंह सरीखे देश भक्तों ने तो अपने वचन निभा दिए पर क्या हम उनके साथ गददारी नहीं कर रहे कि उनके एहसानों को हम याद तक नहीं करते? याद करना तो दूर, हम देश को बांटने का काम कर रहे हैं। बहुत से लोग आज हर पल देश में नफरत की आग सुलगा रहे हैं जब कि वो नहीं जानते कि इस आग के शोलों में उनके बच्चों की मौत निश्चित है।

चौंकाने वाली बात ये है कि हमारे देश की भूख, प्यास और गरीबी के बारे में सरकार या पूंजीपति तो पहले से ही बेफिक्र हैं पर आम नागरिक भी, कोरोना की महामारी और वितीय तकलीफों के बावजूद, जातिवाद, धर्म और नफरत की फसल क्यूँ बो रहा है, ये समझ से परे है। कुछ ही लोग हैं जो भगत सिंह के आदर्शों पर चल, इंसान बन देश को बचाने में लगे हैं वर्ना भारत में आजकल सिर्फ नफरत का बाज़ार पनप रहा है जिसमें सेहत, शिक्षा और विकास की उपलब्धियां हासिल करने की बजाये, हर जगह राजनेता, फिल्म अभिनेता, खिलाड़ी और पूंजीपति के भौंडे, धार्मिक प्रदर्शनों में लिप्त हैं।

सच में भगत सिंह सरीखे हजारों शहीदों के साथ हमने धोखा किया है। बात देशभक्ति की होती है और लोग पूजा करते हैं सिर्फ पैसे और नफरत की। ऐ भगत सिंह, हमें माफ़ करना, हम तेरे लायक नहीं हैं। अंग्रेजों ने सिर्फ तुझे फांसी दी थी, लेकिन हमने तेरे आदर्शो की हत्या की है। बड़े दुःख के साथ कबूल करता हूँ कि भारत में अब ज़्यादातर नागरिक, सांप्रदायिक संकीर्णता से ग्रस्त हैं, देशद्रोही हैं और इसलिए माफ़ी मांगता हूँ कि:

“कोई सीखा नहीं तुझ से, वतन तेरा मिट रहा है,
नफरत की फिज़ा में आज मेरा दम घुट रहा है।।”

संसार के अनमोल रत्न: रफ़ी साहब 

ये तो सर्वविदित है कि स्वर्गीय मोहम्मद रफ़ी के चाहने वालों की फेहरिस्त बहुत लंबी है पर जिस तरह करोड़ों लोग आज भी गायिकी के बादशाह के प्रति प्रेम और सम्मान दर्शाते हैं, वो एक चमत्कार सा लगता है। ये इसलिये क्यूंकि आज जब नामचीन सितारों और नेताओं के लिए आदर भाव नहीं है और धुरंधर गायक-गायिकाओं को उनके जीवन काल में ही भुला दिया गया है, ऐसे में रफ़ी साहब के प्रति लोगों की अगाध श्रद्धा को एक अपवाद ही कहा जा सकता है। बेशक परमात्मा के इस वरदान के पीछे कुछ खास कारण ज़रूर होंगे जिनकी वजह से मंदिर-मस्जिद, जात-पात के झगड़ों से परे, तमाम लोग रफ़ी साहब को एक अलग मुकाम पे रख, भक्ति भाव से पूजते हैं और उन्हें परमात्मा की आवाज़ मानते हैं।

आध्यात्मिक ग्रंथों के अनुसार, दुनिया में पीर-पैगम्बर, संत और मसीहा निश्छल, निष्कपट, सरल इंसान होते हैं और चूंकि उनका प्रत्येक कर्म मानव सेवा को समर्पित होता है, इसलिये उनके संसर्ग में आने वालों को हमेशा एक आलौकिक अनुभूति होती है। सात दशकों से अगर रफ़ी साहब सब के चहेते हैं और लोगों ने उनके गीतों को आत्मसात किया हुआ है तो वो इसलिये कि रफ़ी साहब ने एक संत की भांति, प्रत्येक रचना को इतनी तन्मयता से गाया कि उनकी इमानदारी, उनकी सुरीली आवाज़ में घुल कर, आलौकिक आनंद पैदा करती है। निसंदेह, दुनिया भर में उनके गीतों का जादू बरकरार है तो इसका श्रेय उनके पवित्र और समर्पित गायन को जाता है जिसे सुन हरेक श्रोता को एक दिव्य अनुभूति होती है। 

गुणीजन मानते हैं कि रफ़ी साहब की आवाज़ में ईश्वर का प्यार बरसता है क्यूंकि वो उत्कृष्ट कलाकार के साथ-साथ, बहुत अच्छे इंसान थे। अहंकार, लोभ, द्वेष या राजनीति से सर्वथा अछूते इस कलाकार ने बहुतेरे संगीतकारों – निर्माताओं को स्थापित करने के लिये सैंकड़ों गीत मुफ्त गा दिए और अनेकों कलाकारों की चुपचाप आर्थिक मदद की क्यूंकि गायिकी उनका धर्म-ईमान था। इसी वजह से उनकी आवाज़ ईश्वर की करुणा से झंकृत है जिसमें एक और जहाँ चांदनी की शीतलता है तो बिजली की थिरकन भी, ओस की निर्मलता है तो सौंधी-सौंधी हवा की रूहानी ताकत और शोखी भी, हिमालय की बुलंदी और सागर की गहराई में गुंथी इस आवाज़ की मखमली अदायगी एक तरह से दिव्य अमृत का साक्षात्कार ही है।

संगीतकार खय्याम बताते हैं कि “ताउम्र रफ़ी साहब ने हरेक संगीतकार की रचना की बारीकियों को एक विद्यार्थी की तरह सीखा और फिर गाया” और इसीलिये उनके सुर झरने के पानी की तरह साफ, निर्मल और मीठे बहते थे। मानव मन की परतों को रफ़ी साहब एक मनीषी की तरह समझते थे और इसीलिये उनके गीतों में भाव है, प्रवाह है, पात्र है, सहजता है और उनकी आवाज़ आत्मा में घर कर जाती है। आप ध्यान देंगे तो पायेंगे रफ़ी साहब की आवाज़ में गज़ब की अभिनय क्षमता है और उसमें हर रंग, हर भाव, हर अदा का समावेश है, इसीलिये किसी भी चरित्र पर उनकी आवाज़ थोपी हुई नहीं लगती है। अमीर-गरीब, शहरी-ग्रामीण, बूढ़ा-जवान, चंचल-गंभीर व्यक्तित्व से लेकर सैनिक हो या किसान, मजदूर हो या बाबू, सब के लिये रफ़ी साहब की आवाज़ उपयुक्त है क्यूंकि उसमें योगेश्वर का सम्पूर्ण भाव बरसता है।

गाना रूमानी हो या दर्दीला, मिलन का हो या विछोह का, घुमावदार कठिन तान हो या ग़ज़ल की कोमलता, कव्वाली का जोश हो या प्रणय का उन्माद, परमेश्वर की उपासना हो या देश प्रेम की सुलगती ज्वाला, रफ़ी साहब शायर-गीतकार के उद्गारों को अपने अनूठे अंदाज़ में रूह बख्श देते थे। उनकी आवाज़ की विविधता, व्यापकता, मिठास, सोज़, कशिश और लोच के कारण ही रफ़ी साहब के लिये संगीतकारों ने तीन सप्तक के गीत सृजित किये जबकि पहले ज़्यादातर गीत एक सप्तक तक सीमित रहते थे। उनके समकालीन गायक-गायिकायें जानते थे कि शब्दों के उच्चारण और भावों को संगीतमय अभिव्यक्ती देने में वो अपनी तरह के अकेले गायक थे और कोई अचरज नहीं कि मन्ना डे सरीखे उत्तम कलाकार ने रफ़ी साहब को सारे गायक-गायिकाओं में सर्वश्रेष्ठ माना है क्यूंकि स्वरों को श्रोताओं की आत्मा में तस्वीर की तरह उतार देने की असाधारण कला सिर्फ रफ़ी साहब ही जानते थे। संगीतकार जयदेव ने भी 1981 में मुझे कहा था कि नौशाद, सचिन देव बर्मन, शंकर-जयकिशन और ओ. पी. नैय्यर, रफ़ी साहब को रेंज, सोज़, विविधता और भाव-अभिव्यक्ति के मामले में सभी गायक-गायिकाओं में सर्वोच्च कलाकार मानते थे। 

मन्ना डे का गंभीर विश्लेषण वाकई सही है क्यूंकि मुकेश जहाँ दर्दीले गीतों के गायक थे तो तलत महमूद नर्मों नाज़ुक ग़ज़लों के माहिर, खुद मन्ना डे ज़्यादातर शास्त्रीय संगीत पर आधारित गीतों से जुड़े रहे तो किशोर कुमार हलके-फुल्के, चंचल गीतों के लिये ही जाने गये। आप ध्यान करेंगे तो पायेंगे कि किशोर कुमार को किसी संगीतकार ने कभी कोई भजन, ग़ज़ल, कव्वाली या राष्ट्र भक्ती का गीत गाने को नहीं दिया ठीक जिस प्रकार मन्ना डे को ज़्यादातर पाश्चात्य स्वर लहरियों से दूर रखा गया क्यूंकि उनकी आवाजों की कुछ सीमाएं थीं। और तो और, रफ़ी साहब की असाधारण क्षमता के कारण ही जब किसी एक ही गीत को स्त्री-पुरुष स्वरों में अलग-अलग रिकॉर्ड किया गया तो लता मंगेशकर, आशा भोंसले और सुमन कल्यानपुर के बजाये, रफ़ी साहब के गाये संस्करण जनता में हमेशा ज़्यादा मशहूर हुए। 

अक्सर शोहरत की बुलंदियों पे बैठे लोगों की शान में झूठी तारीफें की जाती हैं पर असली प्रशंसा वो ही होती है जो आपके प्रतिद्वंदीयों, सह-कर्मियों या सेवकों द्वारा की जाती है। रफ़ी साहब की मृत्यु पर गायक तलत महमूद ने रुंधे गले से कहा था “काश, अल्लाह-ताला मेरी जान ले लेता और रफ़ी साहब की जान बख्श देता क्यूंकि दुनिया को उनकी बहुत ज़रूरत थी” ; शायद इससे बड़ा सम्मान और श्रृद्धांजलि किसी भी इंसान के लिये अभिव्यक्त नहीं की जा सकती। अदाकार दिलीप कुमार फरमाते थे कि बेपनाह प्रसिद्धी के बावजूद, रफ़ी साहब इंसानियत की मिसाल रहे और “माईक के अलावा, हमेशा इतने नम्र स्वर में बोलते थे कि सुनना मुश्किल होता था। चालीस साल के उनके फ़िल्मी सफर में कभी किसी ने उनको किसी से कोई अभद्र व्यवहार करते नहीं देखा और मैंने किसी के मुख से रफ़ी साहब के बारे में कोई अपशब्द नहीं सुना”। 

संगीतकार नौशाद के अनुसार रफ़ी साहब पर संगीत कला को अभिमान था क्यूंकि “सुनी सबने मोहब्बत की जुबां आवाज़ में तेरी, धड़कता है दिले हिन्दोस्तां आवाज़ में तेरी”, पर अफ़सोस, “हिन्दुस्तान की धडकन” को सरकारी तंत्र ने भारत रत्न से नहीं नवाजा क्यूंकि रफ़ी साहब कभी किसी राजनीतिक पार्टी या प्रान्त विशेष के मोहरे नहीं बने और उन्होनें किसी नेता की प्रशंसा के कसीदे नहीं पढ़े। जिस बिरले कलाकार ने अपनी कला से दुनिया को प्रेम और एकता के सूत्र में पिरो दिया, उसे भारत रत्न नहीं देना क्या करोडो लोगों के साथ अन्याय नहीं है? अजीब बात ये है कि संगीत जगत में जिसका कोई सानी नहीं था, जिसको भजन, गीत, ग़ज़ल, कव्वाली, पाश्चात्य और शास्त्रीय संगीत पर सामान महारत हासिल थी, उससे ज़्यादा सरकारी पुरूस्कार बहुतेरे छुटभैय्यों को दे दिए गये जबकि रफ़ी साहब भारतीय संस्कृति के सर्वधर्म समभाव और इंसानियत के सर्वोत्तम प्रतीक थे। 

पर इससे क्या फर्क पड़ता है क्यूंकि सरकारों की बेरुखी के बावजूद, ईश्वर ने असंख्य लोगों के हृदय में रफ़ी साहब को चिर स्थापित कर रखा है और धर्म, जाति, राष्ट्र और भाषा से परे, रफ़ी साहब दुनिया भर के दिलों पर राज कर रहे हैं। इन्टरनेट गवाह है कि अपार संख्या में क्यूँ विदेशी उनके दीवाने हैं और क्यूँ संसार में हर पल, उनके गीत बजते रहते हैं। शायद यही ईश्वर का वरदान है, सबसे बड़ा पुरूस्कार है और इंसानियत की जीत भी क्यूंकि महल हो या झोंपड़ा, हर जगह रफ़ी साहब के ही गीत गूँज रहे हैं।

मुझे याद है बांद्रा के गुरु नानक पार्क में स्थित उनके घर में एक सूक्ती लटकी रहती थी जिस पर लिखा था: “जितना झुकेगा जो उतना उरोज पायेगा, ईमान है जिस दिल में वो बुलंदी पर जाएगा”, यथार्थ में रफ़ी साहब अक्षरक्ष उस सूक्ति को जीते रहे और कोई शक नहीं क्यूँ कुछ वर्ष पूर्व एक सिने पत्रिका द्वारा कराये गये सर्वेक्षण में रफ़ी साहब को फिल्म उद्योग का सबसे लोकप्रिय कलाकार चुना गया।

There is a child in me that misses Nehru Chacha!

I saw Pandit Jawaharlal Nehru, the first Prime Minister of India, way back in the early 1960s from the shoulders of my father. The memory of that evening as he spoke to thousands from the canopy of Jaipur Museum is still vivid in my mind as also the rapturous applause that went up in the air after every few sentences. The gigantic rush for meeting Nehru as he walked through crowds at Ram Niwas Bagh, patting cheeks and shaking hands of children and adults alike, is incomparable to any of the rallies addressed by today’s political pygmies. The love and respect for the visionary leader were spontaneous and overwhelming, revealing why the charismatic man was everyone’s favourite Chacha Nehru. He was not a leader but a dear member of every Indian family, whom everyone trusted as their own. Though I did not receive his paternal pat, yet I saw him from close quarters to understand that he was an extraordinary human being with a loving soul that throbbed for all.

However, it was much later after I read his books that I finally fell in love with the idealistic Jawahar Lal Nehru. After all, who would not be moved by studying his books like “Glimpses of World History”, “Discovery of India” and “Letters from a Father to a Daughter” since each page drips with profound wisdom and enlightenment. Quite astounding that the freedom fighter, imprisoned for over eight and a half years, could author such marvellous texts for future generations. The books reveal the majestic stature of his erudition as, despite his overriding engagement with the independence movement, Nehru writes each sentence with remarkable insight and sensitivity. And his “book of letters” uncovers a caring father who is concerned for his only child even in the heat and dust of the political struggle.

Looking around and seeing how the nations of our sub-continent have suffered from martial laws, military rules and despotic tyrants in the last seven decades, I feel we all owe a debt to Nehru for strengthening the roots of democracy in India. It was his steadfast belief in the democratic institutions and rule of law that gave this country not just a democratic conscience but also a coveted standing in the pantheon of nations. While prejudiced minds have derided Nehru in the last few years, all because they cannot attain his stature, it is a fact that had it not been for the visionary Nehru, India would not have been blessed with sparkling diamonds like ISRO, SAIL, SCI, DRDO, AIIMS, IITs, IIMs, Agricultural Universities and hordes of PSUs that have brought prosperity and recognition to our talent, product and services across the globe.

Remember the nation he inherited in 1947 was traumatised by a tragic and violent partition, a festering wound that had hordes of poor, illiterate and impoverished citizens struggling for existence. But thanks to Nehru, the fires of communalism were doused and our energies were transmitted into the right spheres to nurture millions with hope, education, health and prosperity. They are dumb who cannot see the humungous curses and drawbacks that confronted Nehru and what, despite meagre resources and international apathy, India did achieve in his compassionate reign!

I remember the day Nehru died. Me and my family members were watching a Hindi movie in Jagraon in Punjab where we had gone for a relative’s marriage. The afternoon show was in full flow when in a choking voice, the theatre manager announced the show would not continue any further due to the demise of the beloved Prime Minister. There was a collective gasp of horror and as the audiences walked out in hushed silence, many, including my parents, had tears in their eyes. The atmosphere in the streets was even more sombre and bizarre as most people sobbed uncontrollably while clinging on to one another for comfort.

Late film director Lekh Tandon once told me that independent India had seen only three deaths which were universally mourned by all its citizens across the length and breadth of the country. While I wasn’t born when Mahatma Gandhi was assassinated, I did see the overpowering grief of millions that burst forth after the deaths of Pandit Nehru and legendary singer Mohammed Rafi. Numb citizens across various villages and towns of India shed unabashed tears for the two of the most loved citizens of our times and yes, even Mother Nature mourned their deaths with torrential rains as if heavens too grieved at the demise of the two of the most noble human beings.

Like his ashes that mingled with the dust and soil of India to become an indistinguishable part of the nation, it is important that we all imbibe Nehru’s spirit of scientific temper, tolerance and understanding to break “shackles that bind and constrain” India. To save this country from any further communal calamity as well as increase the nation’s wealth, it is imperative that Indians inculcate Nehru’s overriding affection for humanity as that alone can bring prosperity and peace to us as well as the globe.

प्रसिद्ध पटकथा और संवाद लेखक सागर सरहदी उन बिरले लोगों में से थे जिन्होनें कभी भी अपनी प्रसिद्धी और पुरुस्कारों को अपने व्यक्तित्व पे हावी नहीं होने दिया और ना ही कभी बाज़ार की ताकतों के आगे झुक कर, अपनी कलम को शर्मिंदा किया. यही वजह है कि तमाम कलाओं के व्यावसायिकरण के बावजूद, “नूरी”, “अनुभव”, “कभी कभी”, “सिलसिला”, “चांदनी”, “कहो ना प्यार है” और “बाज़ार” जैसी लगभग पंद्रह सुपर हिट फिल्मों की पटकथा-संवाद लिखने वाला ये कम्युनिस्ट विचारक और लेखक, एक आम आदमी की तरह जीता रहा.

सागर सरहदी को आप मुंबई की बस या रेलगाड़ी में सफ़र करते हुए देख सकते थे और ऐसा नहीं है कि सागर सरहदी कार नहीं खरीद सकते थे या ऐशो-आराम से जी नहीं सकते थे. पर उन्होनें बड़े-बड़े दबावों के बावजूद अपनी कलम और ज़ुबान की साफगोई को बरकरार रखने की खातिर, ज़िंदगी में बड़ी भारी कीमत चुकाई. ऐसा भी नहीं है कि उनको सड़क, बस और रेल के सफ़र माफिक नहीं आते थे क्यूंकि उनके मुताबिक: “मैं इस धरती का एक साधारण आदमी हूँ और हकीकत में जीना पसंद करता हूँ” तथा उनका मानना था कि अगर “मैं भीड़ की जद्दो-जहद का हिस्सा नहीं बनूँगा तो फिर रोज़मर्रा के उस ज़मीनी एहसास से कट जाऊँगा जिससे किसी भी लेखक को कभी दूर नहीं होना चाहिये”. सागर साहब इतने सादा तरीके से ज़िंदगी जीते थे कि जो कोई भी उनसे पहली बार मिलता तो उसे यकीन ही नहीं होता था कि यही वो शख्स है जिसने हिंदी फिल्म उद्योग की बड़ी-बड़ी फिल्में लिखी हैं और जिसकी कलम ने अमिताभ बच्चन, शशी कपूर, संजीव कुमार, शबाना आज़मी और स्मिता पाटिल से लेकर बासु भट्टाचार्य, यश चोपड़ा और राकेश रौशन को अपना दीवाना बना दिया था.

उम्र के फासले के बावजूद, मेरी और सागर साहब की करीब 34-35 साल की दोस्ती बिना किसी लाग-लपेट के रही और हमारी खूब छनी. अगर वो बेबाक बोलते थे तो मैं खुद भी सच्चाई और साफ़गोई के लिये स्कूल के ज़माने से बदनाम रहा हूँ, लेकिन उनका व्यवहार मेरे प्रति हमेशा दोस्ताना ही रहा. हमारे बीच वैचारिक आदान-प्रदान के अलावा कभी कोई व्यावसायिक लेन देन नहीं हुआ; ना मैंने उनसे किसी तरह की कोई फरमाइश की, ना उन्होनें मुझ से कभी किसी प्रकार की कोई चाह रखी. 1995 के बाद उनकी माली हालत खराब हो गयी जिसका दोष उनकी अव्यवस्थित कार्यशैली और लापरवाही को जाता था, लेकिन तमाम वित्तीय झटकों के बावजूद, इस छोटे कद के बड़े दिलवाले लेखक के कामकाज के तरीके में कोई फर्क नहीं आया.

फिल्म लेखन की मसरूफीयात के बावजूद, सागर ने इप्टा (इंडियन पीपल्स थियेटर) के रंगमंच से कभी नाता नहीं तोड़ा था लेकिन अपने कठिन दौर में भी उन्होनें नवज्ज़ुद्दीन सरीखे, संघर्षरत नौजवान लड़के-लडकीयों को संबल दिया, उनको लेकर ड्रामे किये और हर शाम कई लड़के-लड़कीयों को थियेटर की बारीकीयाँ समझाते रहे. आम लोगों के वास्ते उन्होनें जो ड्रामे किये उनमें पैसा उनकी जेब से ही लगता था और उनके नाटक में सभी तरह के लोगों का स्वागत होता था; जिन्होनें टिकिट खरीदे हों उनका भी और जो टिकिट खरीद सकने की क्षमता ना रखते हों, उनका भी. पृथ्वीराज कपूर की तरह, सागर सरहदी भी नाटक को देश के हर कोने में मशहूर करना चाहते थे पर अफ़सोस उनकी प्रगतिशील और अभिनव सोच का ज़्यादातर लोग ने साथ नहीं दिया और ये प्रयोग, उनकी वित्तीय कठिनाईयों के कारण, बंद हो गया. हिट फिल्में लिखने के बावजूद, उनकी कड़वी ज़ुबान ने कई लोगों को उनके खिलाफ कर दिया और सागर साहब फ़िल्मी दुनिया के हाशिये पर आ गये. वर्ना जिस मुकाम के वो लेखक थे और जिस तरह की कामयाब फिल्मों की उनकी फेहरिस्त थी और जिस तरह लोग उनकी लेखनी के कद्रदान थे, उनके लिये काम की कोई कमी ना रहती.

मुझ से लगाव होने के कारण वो अपने कई विचार मेरे साथ इसलिये बाँटते थे क्यूंकि उन्हें यकीन था कि मैं उन्हें अच्छी राय दे सकूँगा. एक बार उनकी किस्सागोई ख़त्म होने के बाद, मैंने उनसे पूछा “सागर साहब, आपने कभी शादी नहीं की, फिर भी आप इतनी शानदार रोमांटिक कहानियाँ और संवाद कैसे लिख लेते हैं?”

वो ज़ोर से हँसे और बोले “यार महान, शादी नहीं की तो क्या, रोमांस तो बहुत किये हैं ना हमनें”.

उस जुलाई की दोपहर, उनके अंधेरी स्थित ऑफिस में हम दोनों अकेले थे. चाय की चुस्कीयों और बरसात की बूंदों की आवाज़ में, वो संजीदा हो कर बताने लगे कि कैसे उन्होनें कभी किसी रिश्ते को खुद नहीं तोड़ा पर उनकी फक्कड़ तबीयत के रहते, कोई भी औरत उनके साथ हमेशा साथ रहने को राजी नहीं हुई. लेकिन उन्हें किसी से कोई शिकायत न थी और ना ही किसी औरत के बारे में उन्होनें कोई अपशब्द बोला. बल्कि वो हर औरत के संग बीतें समय को अपनी दौलत और ताकत बताते रहे क्यूंकि हर रिश्ते ने उन्हें कुछ न कुछ नया सिखाया था जिससे उनकी सोच और कलम को नयी दिशा मिली थी. भावुक हो कर बोले, “यार महान, बिना औरत के दुनिया का तसव्वुर करना भी मुश्किल हो जाता है. अगर ज़मीन पर औरत न होती तो इंसान कभी कोई तरक्की न कर पाता क्यूंकि औरत ने ही मां, बेटी, बीवी, बहिन और भाभी के रूप में हर रिश्ते को इज्ज़त दी है, जज़्बात दिये हैं, रूहानी ताकत बख्शी है.”

मुझे अक्सर ताज्जुब होता था कि औरत की बेइंतहा इज्ज़त करने वाले सागर सरहदी के मुंह से अक्सर धाराप्रवाह गालीयाँ क्यूँ निकलती हैं हालांकि ये कहना पड़ेगा कि मेरे प्रति उन्होनें कभी कोई अपशब्द का प्रयोग नहीं किया. मैंने खुद आज तक कभी कोई गाली नहीं दी है और इसलिये जब कभी वो गाली-गलौज करते तो मुझे काफी कोफ़्त होती थी. एक दिन मैंने उनसे कह ही दिया कि मर्दों द्वारा दी जाने वाली सारी गालियाँ, औरतों की बेईज्ज़ती करती हैं, उन्हें नीचा दिखाती हैं, तब उन जैसा ज़हीन लेखक ऐसा गुनाह क्यूँ करता है? कुछ देर स्तब्ध रहने के बाद, सागर साहब ने निहायत ईमानदारी से अपनी कमज़ोरी स्वीकार कर ली. अपनी गलत आदत को एक मानसिक रोग बता, उन्होनें इसे वक्त और हालात की देन कहा जिसे उन्होनें बेवजह अपना लिया था. उन्होनें माना कि जैसे वो अपने बुज़ुर्गों के सामने गाली नहीं देते थे, वैसे ही अगर वो दूसरी जगहों पर भी अपनी ज़ुबान पर काबू रखते थे तो शायद ये कमजोरी पैदा नहीं होती पर क्यूंकि उन्होनें ऐसा नहीं किया, इस वजह से गाली उनकी बातचीत में एक तकिया-कलाम की तरह शुमार हो गयी.

उस शाम हम नें बहुत देर तक बातचीत की और तीन चार दफा चाय भी पी. चाय की ही चुस्कीयों के दौरान उन्होनें मुझ से वो लफ्ज़ कहे जो मेरे लिये किसी भी इनाम से कम ना थे. वो बोले, “यार महान, एक अच्छी ज़ह्नीयत के साथ-साथ तुम्हारी सोच भी बहुत अच्छी है. जैसे तुम सवाल पूछते हो और जैसे तुम ख्याल रखते हो, उससे तुम्हारी ईमानदारी और इंसानीयत झलकती है. मुझे लगता है तुम बहुत अच्छा लिखोगे”.

एक संवेदनशील लेखक की इंसानीयत में हमेशा अंतर्मन की सोच और सामाजिक प्रतिबद्धतता का एहसास होता है जिसकी आजकल के सृजनकारों और कलाकारों में बहुत कमी पायी जाती है. लोग पैसों के लिये अपने ज़मीर को बेच कर किस तरह समझौते करते हैं, ये आज की फिल्मों के लेखन से साफ़ ज़ाहिर होता है. हो सकता है बाज़ार की व्यावसायिक दौड़ में सागर साहब ने कुछ भूलें की और वो पीछे रह गये पर उनके जैसे धैर्यवान लेखक-निर्देशक की रूह में जो उजाला रहता है, वही मुल्क और समाज को परिपक्वता और नैतिक दृढ़ता प्रदान करते हैं.