प्रसिद्ध पटकथा और संवाद लेखक सागर सरहदी उन बिरले लोगों में से थे जिन्होनें कभी भी अपनी प्रसिद्धी और पुरुस्कारों को अपने व्यक्तित्व पे हावी नहीं होने दिया और ना ही कभी बाज़ार की ताकतों के आगे झुक कर, अपनी कलम को शर्मिंदा किया. यही वजह है कि तमाम कलाओं के व्यावसायिकरण के बावजूद, “नूरी”, “अनुभव”, “कभी कभी”, “सिलसिला”, “चांदनी”, “कहो ना प्यार है” और “बाज़ार” जैसी लगभग पंद्रह सुपर हिट फिल्मों की पटकथा-संवाद लिखने वाला ये कम्युनिस्ट विचारक और लेखक, एक आम आदमी की तरह जीता रहा.

सागर सरहदी को आप मुंबई की बस या रेलगाड़ी में सफ़र करते हुए देख सकते थे और ऐसा नहीं है कि सागर सरहदी कार नहीं खरीद सकते थे या ऐशो-आराम से जी नहीं सकते थे. पर उन्होनें बड़े-बड़े दबावों के बावजूद अपनी कलम और ज़ुबान की साफगोई को बरकरार रखने की खातिर, ज़िंदगी में बड़ी भारी कीमत चुकाई. ऐसा भी नहीं है कि उनको सड़क, बस और रेल के सफ़र माफिक नहीं आते थे क्यूंकि उनके मुताबिक: “मैं इस धरती का एक साधारण आदमी हूँ और हकीकत में जीना पसंद करता हूँ” तथा उनका मानना था कि अगर “मैं भीड़ की जद्दो-जहद का हिस्सा नहीं बनूँगा तो फिर रोज़मर्रा के उस ज़मीनी एहसास से कट जाऊँगा जिससे किसी भी लेखक को कभी दूर नहीं होना चाहिये”. सागर साहब इतने सादा तरीके से ज़िंदगी जीते थे कि जो कोई भी उनसे पहली बार मिलता तो उसे यकीन ही नहीं होता था कि यही वो शख्स है जिसने हिंदी फिल्म उद्योग की बड़ी-बड़ी फिल्में लिखी हैं और जिसकी कलम ने अमिताभ बच्चन, शशी कपूर, संजीव कुमार, शबाना आज़मी और स्मिता पाटिल से लेकर बासु भट्टाचार्य, यश चोपड़ा और राकेश रौशन को अपना दीवाना बना दिया था.

उम्र के फासले के बावजूद, मेरी और सागर साहब की करीब 34-35 साल की दोस्ती बिना किसी लाग-लपेट के रही और हमारी खूब छनी. अगर वो बेबाक बोलते थे तो मैं खुद भी सच्चाई और साफ़गोई के लिये स्कूल के ज़माने से बदनाम रहा हूँ, लेकिन उनका व्यवहार मेरे प्रति हमेशा दोस्ताना ही रहा. हमारे बीच वैचारिक आदान-प्रदान के अलावा कभी कोई व्यावसायिक लेन देन नहीं हुआ; ना मैंने उनसे किसी तरह की कोई फरमाइश की, ना उन्होनें मुझ से कभी किसी प्रकार की कोई चाह रखी. 1995 के बाद उनकी माली हालत खराब हो गयी जिसका दोष उनकी अव्यवस्थित कार्यशैली और लापरवाही को जाता था, लेकिन तमाम वित्तीय झटकों के बावजूद, इस छोटे कद के बड़े दिलवाले लेखक के कामकाज के तरीके में कोई फर्क नहीं आया.

फिल्म लेखन की मसरूफीयात के बावजूद, सागर ने इप्टा (इंडियन पीपल्स थियेटर) के रंगमंच से कभी नाता नहीं तोड़ा था लेकिन अपने कठिन दौर में भी उन्होनें नवज्ज़ुद्दीन सरीखे, संघर्षरत नौजवान लड़के-लडकीयों को संबल दिया, उनको लेकर ड्रामे किये और हर शाम कई लड़के-लड़कीयों को थियेटर की बारीकीयाँ समझाते रहे. आम लोगों के वास्ते उन्होनें जो ड्रामे किये उनमें पैसा उनकी जेब से ही लगता था और उनके नाटक में सभी तरह के लोगों का स्वागत होता था; जिन्होनें टिकिट खरीदे हों उनका भी और जो टिकिट खरीद सकने की क्षमता ना रखते हों, उनका भी. पृथ्वीराज कपूर की तरह, सागर सरहदी भी नाटक को देश के हर कोने में मशहूर करना चाहते थे पर अफ़सोस उनकी प्रगतिशील और अभिनव सोच का ज़्यादातर लोग ने साथ नहीं दिया और ये प्रयोग, उनकी वित्तीय कठिनाईयों के कारण, बंद हो गया. हिट फिल्में लिखने के बावजूद, उनकी कड़वी ज़ुबान ने कई लोगों को उनके खिलाफ कर दिया और सागर साहब फ़िल्मी दुनिया के हाशिये पर आ गये. वर्ना जिस मुकाम के वो लेखक थे और जिस तरह की कामयाब फिल्मों की उनकी फेहरिस्त थी और जिस तरह लोग उनकी लेखनी के कद्रदान थे, उनके लिये काम की कोई कमी ना रहती.

मुझ से लगाव होने के कारण वो अपने कई विचार मेरे साथ इसलिये बाँटते थे क्यूंकि उन्हें यकीन था कि मैं उन्हें अच्छी राय दे सकूँगा. एक बार उनकी किस्सागोई ख़त्म होने के बाद, मैंने उनसे पूछा “सागर साहब, आपने कभी शादी नहीं की, फिर भी आप इतनी शानदार रोमांटिक कहानियाँ और संवाद कैसे लिख लेते हैं?”

वो ज़ोर से हँसे और बोले “यार महान, शादी नहीं की तो क्या, रोमांस तो बहुत किये हैं ना हमनें”.

उस जुलाई की दोपहर, उनके अंधेरी स्थित ऑफिस में हम दोनों अकेले थे. चाय की चुस्कीयों और बरसात की बूंदों की आवाज़ में, वो संजीदा हो कर बताने लगे कि कैसे उन्होनें कभी किसी रिश्ते को खुद नहीं तोड़ा पर उनकी फक्कड़ तबीयत के रहते, कोई भी औरत उनके साथ हमेशा साथ रहने को राजी नहीं हुई. लेकिन उन्हें किसी से कोई शिकायत न थी और ना ही किसी औरत के बारे में उन्होनें कोई अपशब्द बोला. बल्कि वो हर औरत के संग बीतें समय को अपनी दौलत और ताकत बताते रहे क्यूंकि हर रिश्ते ने उन्हें कुछ न कुछ नया सिखाया था जिससे उनकी सोच और कलम को नयी दिशा मिली थी. भावुक हो कर बोले, “यार महान, बिना औरत के दुनिया का तसव्वुर करना भी मुश्किल हो जाता है. अगर ज़मीन पर औरत न होती तो इंसान कभी कोई तरक्की न कर पाता क्यूंकि औरत ने ही मां, बेटी, बीवी, बहिन और भाभी के रूप में हर रिश्ते को इज्ज़त दी है, जज़्बात दिये हैं, रूहानी ताकत बख्शी है.”

मुझे अक्सर ताज्जुब होता था कि औरत की बेइंतहा इज्ज़त करने वाले सागर सरहदी के मुंह से अक्सर धाराप्रवाह गालीयाँ क्यूँ निकलती हैं हालांकि ये कहना पड़ेगा कि मेरे प्रति उन्होनें कभी कोई अपशब्द का प्रयोग नहीं किया. मैंने खुद आज तक कभी कोई गाली नहीं दी है और इसलिये जब कभी वो गाली-गलौज करते तो मुझे काफी कोफ़्त होती थी. एक दिन मैंने उनसे कह ही दिया कि मर्दों द्वारा दी जाने वाली सारी गालियाँ, औरतों की बेईज्ज़ती करती हैं, उन्हें नीचा दिखाती हैं, तब उन जैसा ज़हीन लेखक ऐसा गुनाह क्यूँ करता है? कुछ देर स्तब्ध रहने के बाद, सागर साहब ने निहायत ईमानदारी से अपनी कमज़ोरी स्वीकार कर ली. अपनी गलत आदत को एक मानसिक रोग बता, उन्होनें इसे वक्त और हालात की देन कहा जिसे उन्होनें बेवजह अपना लिया था. उन्होनें माना कि जैसे वो अपने बुज़ुर्गों के सामने गाली नहीं देते थे, वैसे ही अगर वो दूसरी जगहों पर भी अपनी ज़ुबान पर काबू रखते थे तो शायद ये कमजोरी पैदा नहीं होती पर क्यूंकि उन्होनें ऐसा नहीं किया, इस वजह से गाली उनकी बातचीत में एक तकिया-कलाम की तरह शुमार हो गयी.

उस शाम हम नें बहुत देर तक बातचीत की और तीन चार दफा चाय भी पी. चाय की ही चुस्कीयों के दौरान उन्होनें मुझ से वो लफ्ज़ कहे जो मेरे लिये किसी भी इनाम से कम ना थे. वो बोले, “यार महान, एक अच्छी ज़ह्नीयत के साथ-साथ तुम्हारी सोच भी बहुत अच्छी है. जैसे तुम सवाल पूछते हो और जैसे तुम ख्याल रखते हो, उससे तुम्हारी ईमानदारी और इंसानीयत झलकती है. मुझे लगता है तुम बहुत अच्छा लिखोगे”.

एक संवेदनशील लेखक की इंसानीयत में हमेशा अंतर्मन की सोच और सामाजिक प्रतिबद्धतता का एहसास होता है जिसकी आजकल के सृजनकारों और कलाकारों में बहुत कमी पायी जाती है. लोग पैसों के लिये अपने ज़मीर को बेच कर किस तरह समझौते करते हैं, ये आज की फिल्मों के लेखन से साफ़ ज़ाहिर होता है. हो सकता है बाज़ार की व्यावसायिक दौड़ में सागर साहब ने कुछ भूलें की और वो पीछे रह गये पर उनके जैसे धैर्यवान लेखक-निर्देशक की रूह में जो उजाला रहता है, वही मुल्क और समाज को परिपक्वता और नैतिक दृढ़ता प्रदान करते हैं.

One reply on “सागर सरहदी : बाज़ार से लड़ता सिपाही

  • Prabhat Goswami

    समांतर सिनेमा के साथ मुख्य धारा की लोकप्रिय फिल्मों में लेखन से लोकप्रिय सागर सरहदी का जाना अपूरणीय क्षति है । विनम्र श्रद्धांजलि।

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