
नफरत की फिज़ा में, आज मेरा दम घुट रहा है!
“तू ना रो माँ के तू है भगत सिंह की माँ, मर के भी लाल तेरा मरेगा नहीं
घोड़ी चढ़ के तो लाते हैं दुल्हन सभी, हँस के हर कोई फांसी चढ़ेगा नहीं.”
अपनी माँ से शादी ना करने की ऐसी दलील, शायद एक बिरला इंसान ही कर सकता था और बेशक भगत सिंह इतिहास में अपने तरीके का अनोखा व्यक्तित्व था — निडर, सत्यव्रत, कर्तव्यनिष्ठ, निष्काम कर्मयोगी. वो एक ऐसा योद्धा था जिसका कोई सानी नहीं था और आज नौ दशक बाद भी, उसकी तरह का दूसरा इंसान ढूंढे नहीं मिलता. तेईस साल की मासूम उम्र में भारत की आज़ादी के लिए उसने जो हँसते-हँसते कुर्बानी दी, उसकी जितनी भी तारीफ़ की जाये कम है. पर अफ़सोस, हम करोडो भारतवासी उन परमवीरों की शहादत को याद नहीं करते जिनके लहू से आज हमारा समाज जीवित है.
तेईस मार्च की तारीख एक बार फिर आ गई लेकिन किसी चैनल या रेडियो स्टेशन पर से भगत सिंह, राजगुरु या सुखदेव के सम्मान में कोई एक पंक्ति भी श्रद्धांजलि के रूप में प्रसारित नहीं हुई जब की निकृष्ट और लुंज पुंज से नेताओ के जन्मदिन या पुण्यतिथि पर सारा मीडिया-तंत्र कसीदे पढ़ता रहता है. किसी राजनेता या अभिनेता को भगत सिंह या उसके साथी याद नहीं आये क्योंकि वो शायद बिकने लायक विज्ञापन नहीं हैं और ना ही किसी राजनितिक वोट बैंक का हिस्सा.
वो शायर बहुत मासूम था जो समझता था कि लोग कृतज्ञता स्वरूप, शहीदों की बरसी पर हजारों की संख्या में मेले लगाएंगे. पर आईपीएल, डांस, फिल्में, फैशन शो में लिप्त भारत वासीयों को इतनी फुर्सत कहाँ की वो किसी शहीद को याद करें? हाँ, नफरत और हिंसा के लिये सब के पास वक़्त ही वक़्त है.
समय यही बताता है कि जब किसी देश में लोग, कब्र खोदने या गाली-गलौज में समय व्यतीत करते हुए दिखें, तो समझ जाईये कि जनता के विवेक को धर्म की अफीम से हर लिया गया है और वहां का समाज, संवेदनहीन हो चुका है. ऐसे समय में उन्माद से भरे नागरिक, व्यवस्था से रोटी, कपडा, मकान या रोज़गार नहीं मांगते बल्कि एक-दूजे के कपडे फाड़ने में लग जाते हैं.
मन की बात करने वालों के लिये तो ये शहीद इसलिए मायने नहीं रखते क्यूंकि वो किसी राजनैतिक वोट बैंक का हिस्सा नहीं होते और बुद्धिजीवियों को तो शहीदों की याद ही तब आती है जब उनकी याद में कोई अंतर-राष्ट्रीय सेमिनार आयोजित होता है. व्यापारीयों को तो खैर इन शहीदों से कभी भी लेना-देना नहीं रहा है क्यूंकि शहीदों के नाम से नोटों की माला थोड़े ना मिलती है. और जिस देश की जनता, सेंसेक्स की सुई से देश की प्रगति नाप कर खुश होती हो, वहां भला शहीदों की फिक्र क्यूँ और कौन करे?
कितना भोला था भगत सिंह जिसने देशवासीयों को अपनी मृत्यु पर रोने या शोक करने से मना किया था पर उसका एक आग्रह भी था जिसे हम सब ने भुला दिया. भगत सिंह का आग्रह था:
“जब शहीदों की अर्थी उठे धूम से,
देश वालों तुम आंसू बहाना नहीं,
पर मनाओ जब आज़ाद भारत का दिन
उस घड़ी हमें भूल जाना नहीं,
लौट कर आ सके ना जहाँ में तो क्या,
याद बन कर दिलों में तो आ जायेंगे.”
भगत सिंह सरीखे देश भक्तों ने तो अपने वचन निभा दिए पर क्या हम उनके साथ गददारी नहीं कर रहे कि उनके एहसानों को हम याद तक नहीं करते? याद करना तो दूर, बहुत से लोग तो आज हर पल देश में नफरत की आग सुलगा रहे हैं जब कि इस आग में उनके बच्चों की मौत भी निश्चित है.
हमारे देश की भूख, प्यास और गरीबी के बारे में सरकार या पूंजीपति तो बेफिक्र रहते हैं पर एक आम नागरिक भी, कोरोना की महामारी और वितीय तकलीफों को सहने के बावजूद, क्यूँ हर घड़ी जातिवाद, धर्म और नफरत की फसल बो रहा है, ये समझ नहीं आता? सिर्फ कुछ लोग हैं जो भगत सिंह के आदर्शों पर चल, इंसान बन, देश को बचाने में लगे हैं वर्ना आज हर राजनेता, उद्योगपति, फिल्म अभिनेता, खिलाड़ी और पूंजीपति, धार्मिकता के भौंडे प्रदर्शनों में लिप्त हैं.
पिज़्ज़ा और मोबाइल के युग में हर शहादत को भुला दिया गया है. सेहत, शिक्षा और विकास की उपलब्धियां हासिल करने की बजाये, अब हर तरफ झूठ का वर्चस्व है. तभी तो बिना तथ्यों को जाने, महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरु को गाली देना कितना आसान हो गया है. जिन्होनें अंग्रेज़ी हुकूमत के आगे माथे टेक कर माफीनामें लिखे, जिन्होनें भगत सिंह और चंद्रशेखर ‘आज़ाद’ सरीखे स्वाधीनता संग्राम के योद्धाओं के साथ गद्दारी की, जिन्होनें “भारत-छोडो” आन्दोलनों में भाग नहीं लिया और ना कभी देश के लिये कुर्बानी दी, वो लोग आज, भारत में देशभक्ती के प्रमाण पत्र बांटते हैं. सनद रहे, कि जिस नेहरु को गालियाँ देना आजकल निकृष्ट व्यक्तियों का स्वभाव हो गया है, उसी नेहरु को भगत सिंह ने “भारत का भविष्य” और “नेहरु जी की वैज्ञानिक सोच” को भारत का राष्ट्रवाद” बताया था.
सच में भगत सिंह सरीखे हजारों शहीदों के साथ हमने धोखा किया है, गददारी की है क्यूंकि उनके बताये आदर्शों पर हम अमल ही नहीं करते! ये समझ नहीं पाता कि भारत वासी इतने एहसान फरामोश क्यूँ हैं? क्यूँ हम देशवासी, इंसान हो कर भी, इंसान नहीं बन पाते?
भाई भगत सिंह, बड़े दुःख के साथ माफ़ी मांगता हूँ और कबूल करता हूँ कि:
“कोई सीखा नहीं तुझ से, वतन तेरा मिट रहा है,
नफरत की फिज़ा में आज, मेरा दम घुट रहा है!”

Sir, even today everyone gets goosebumps, when he hears the name of Shaheed Bhagat Singh. Under the guidance of Ashok Gehlot ji, we shall try that these revolutionaries are not forgotten and get befitting place in history.