19 जुलाई 1969 को जब 14 प्रमुख वाणिज्यिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था तो सरकार की दलील थी कि उसे मजबूरन ऐसा करना पड़ा क्यूंकि निजी क्षेत्र के बैंक गरीब नागरिकों के हितों को नज़र-अंदाज़ कर रहे थे। इसी नीति के चलते, जब दूसरे चरण में 6 और बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया तो 91 प्रतिशत बैंकिंग उद्योग पर भारत सरकार का नियंत्रण हो गया। द प्रिंट के अनुसार, 2015 तक जहाँ बैंकिंग क्षेत्र के 74 प्रतिशत व्यवसाय पर सरकारी बैंकों का आधिपत्य होता था, वो अब घट कर सिर्फ 59.8 प्रतिशत रह गया है, जबकि निजी बैंकों का हिस्सा बढ़ कर लगभग 34 प्रतिशत हो गया है।  

हालांकि राष्ट्रीयकरण का मुख्य उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में बैंक शाखाओं का विस्तार कर, ग्रामीण किसानों को सस्ते वितीय संसाधन उपलब्ध कराना था, लेकिन ये लक्ष्य अब पूरे नहीं किये जा रहे। आज भी ज़्यादातर ग्रामीणवासी बैंक सुविधा से वंचित है और गरीब को आज बैंकों द्वारा दुत्कारा और प्रताड़ित किया जाता है। उसकी ज़रूरतों और सुविधाओं के लिए राष्ट्रीयकृत बैंक कभी उतने तत्पर नहीं होते जितने की शहरी ग्राहक के लिए, वर्तमान केंद्र सरकार ने तो खैर राष्ट्रीयकृत बैंकों को निजी क्षेत्र को बेचने का इरादा कर रखा है और ऐसा लगता है कि सरकार, अपने कर्तव्य से मुंह मोड़, निजी व्यवसायियों को ग्रामीण साहूकारों की तरह ताकतवर होने का मौका दे रही है। 

भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़े दर्शाते हैं कि पिछले दो दशकों में वाणिज्यिक बैंकों की ग्रामीण शाखाओं की संख्या में  भारी कमी कर दी गयी। प्रसिद्ध समाज विश्लेषक पी साईनाथ के अनुसार 1993 से 2007 की अवधि के दौरान, औसतन प्रत्येक कार्मिक दिन में एक अनुसूचित वाणिज्यिक बैंक की ग्रामीण शाखा को देश में बंद किया गया, जबकि इसी अवधि में शहरी बैंक शाखाओं की संख्या देश भर में दुगनी से अधिक हो गयी। ये आंकड़े साबित करते हैं की सब सरकारों की कथनी और करनी में अंतर है और गरीबों की चिंता महज़ एक दिखावा। वर्तमान सरकार तो वैसे ही सरकारी बैंकों के स्तर को सुधारने की बजाये पूरी तरह से राष्ट्रीयकृत बैंकों को निजी क्षेत्र को सौंपने की हिमायती है, जिससे देश की अर्थ-व्यवस्था को घातक नुक्सान हो सकता है। सच यही है कि ग्रामीण किसानों और काश्तकारों को जानबूझकर, एक सुनियोजित तरीके से, साहूकारों के शिकंजे में धकेला जा रहा है।

पिछली जनगणना अनुसार 72 फीसदी भारतीय गावों में रहते हैं, पर बैंकों का 92 फीसदी ऋण शहरी और अर्ध शहरी क्षेत्रों को दिया जाता है। आज प्रधानमंत्री आम आदमी को किसी भी प्रकार की राहत को रेवड़ी कह कर खिल्ली उड़ाते हैं तथा किसानो की ऋण माफी की भी बहुत से लोग निंदा करते हैं। पर सरकारी कारिंदे और निजी व्यापार के समर्थक वो भूल जाते हैं की आईडीबीआई और आईऍफ़सीआई जैसे सिर्फ दो संस्थानों द्वारा इससे कहीं गुना ज्यादा औद्योगिक ऋण माफ़ किया जा चुका है। अखबार इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार पिछले आठ सालों में, राष्ट्रीयकृत बैंकों द्वारा उद्योगपतियों के 10 लाख 72 हज़ार करोड़ रूपये के निजी ऋण को माफ़ कर दिया गया है।

(Indian express: https://indianexpress.com/article/business/banking-and-finance/banks-write-off-rs-2-02-lakh-cr-in-fy21-7669513/)

कितना अजीब है कि उद्योगपतियों की कोठियां बढ़ती जाती हैं पर ऋण माफ़ हो जातें हैं और गरीब आत्महत्या कर रहे हैं, तब भी उनके घरों की नीलामी की जा रही है। आज राष्ट्रीयकृत बैंकों का व्यवहार भी निजी बैंकों जैसा असंवेदनशील हो गया है जहाँ आम आदमी पर ना केवल तमाम नियम कायदे लादे जाते हैं, बल्कि उसके बुनियादी हक़ भी छीन लिये गए हैं। एक आम नागरिक आज राष्ट्रीयकृत बैंक में आसानी से बचत खाता भी नहीं खुलवा सकता तो फिर ऐसे बैंकों का फायदा क्या? क्या सरकारी बैंकों को एक आम आदमी की ज़रूरतों और आकाँक्षाओं का ध्यान नहीं रखना चाहिए, ख़ास कर तब जबकि उसमें भारतवासियों का पैसा लगा हुआ है? क्या सरकारी बैंकों का सामाजिक उत्तरदायित्व देशवासियों, ख़ास कर आम आदमी के प्रति कुछ भी नहीं?

होना तो ये चाहिए कि राष्ट्रीयकृत बैंकों के इन्फ्रास्ट्रक्चर को बेहतर बनाया जाये, उनकी कार्य प्रणाली पारदर्शी बढ़ाई जाती तथा उनमें रिक्त पदों को शीघ्र भरा जाता। लेकिन इसके विपरीत, जानबूझ कर, हर तरह से राष्ट्रीयकृत बैंकों को कमज़ोर किया जा रहा है, तथा उनके निजीकरण के लिये, उनका शोषण किया जा रहा है। सामाजिक संतुलन और देश की आर्थिक सम्पन्नता के लिये बहुत ज़रूरी है कि सरकारी बैंक मज़बूत किये जाएँ, वर्ना ईस्ट इण्डिया कंपनी की तरह, निजी बैंक व्यवसायी, देश की संपत्ति को दीमक की तरह चाट जायेंगे।

Leave a Reply