भारत में जिसे देखो, आम-आदमी के जीवन स्तर को सुधारने में प्रयासरत है। नेता, अभिनेता, सरकारी अधिकारी, कर्मचारी, मिल मालिक, दुकानदार से ले कर डाक्टर और कसाई तक यही कहता फिरता है कि वो सब कुछ आम-आदमी की भलाई के लिये कर रहा है। पर ये आम-आदमी समझता ही नहीं है कि उसकी तकलीफों को दूर करने के लिये राजनैतिक, सामाजिक, औद्योगिक, वाणिज्यिक और कला जगत की विशिष्ठ विभूतियाँ कितना कुछ न्योच्छावर कर रही हैं। आम-आदमी अगर नासमझ ना होता तो जान जाता कि कैसे “सभ्य लोग” समय-समय पर बस-रेल जलाकर या सार्वजनिक संपती को नष्ट कर के तथा संसद-विधान सभाओं को ठप्प कर के, उसकी तकलीफ को दूर कर रहे हैं।

आम-आदमी बहुत बेअक्ल है तभी तो बूझ ही नहीं पाता कि सरकार चीज़ों के दाम इसलिए नहीं बढ़ाती कि उद्योगपति मुनाफा कमा सकें बल्कि इसलिए कि आम-आदमी समृद्धशाली बन सके। आम-आदमी समझता ही नहीं है कि “हुनरमंद” डाक्टर महंगी दवाइयां लिखते हैं तो सिर्फ इसलिए कि आम-आदमी रोग से ही नहीं, सारे कष्टों से मुक्त हो जाये! आम-आदमी बहुत ही कृत्घन है तभी तो मानता नहीं कि सरकारें टैक्स बढ़ाती हैं तो उसके भले के लिए. आप ही सोचिये अब अगर पुल और हवाई अड्डे नहीं बनेंगे और बनने के बाद, कुछ ही दिनों में वो पुल नहीं टूटेंगे या फिर हवाई अड्डे, सेठों को नहीं दिए जायेंगे तो फिर आम-आदमी का विकास कैसे संभव होगा? आम-आदमी तो इतना नासमझ है कि ये भी नहीं जानता कि विधायक-सांसद की खरीद-फरोख्त कर सरकारें बनाई जाती हैं तो सिर्फ उसकी रोज़ी-रोटी की चिंता के कारण! गरज कि औद्योगिक घराना हो या सरकारी विभाग, राजनैतिक पार्टियां हों या गैर सरकारी प्रतिष्ठान, सभी आम-आदमी के कल्याणार्थ कार्य कर रहे हैं!

आम-आदमी की गलती य़े है कि वो सेवा करने वालों की अहमियत ही नहीं समझता। अब देखिये ना, गणमान्य लोगों ने उसके लिये कितने ही मंदिर-मस्जिद बनवा दिये हैं पर उसे शिकायत है कि पूजा-अर्चना या दर्शन के लिये उसे अतिविशिष्ट लोगों की तरह सुविधा नहीं दी जाती। अब इस अज्ञानी को कौन समझाये कि सुविधापूर्ण दर्शन के लिये विशेष “प्रायोजन और शुल्क” चुकाए बिना परमात्मा से मिलना असंभव होता है। आज जब “ज्ञानी-ध्यानी” उसके लिये नए मंदिर, स्मारक और प्रतिमाएं बनवा रहे हैं, तब भी ये मूर्ख, रोटी, कपडा, मकान और रोज़गार की रट लगाये बैठा है।

लगता है आम-आदमी का फितूर ही रोना है जबकि सारी व्यवस्था उसको खुशहाल बनाना चाहती है। अब देखिये ना, कुकुरमुत्ते से फैले विद्यालयों की भरपूर चेष्ठा है कि इसकी औलादें साक्षर हो जायें पर ये आम-आदमी है कि लगातार मांग करता है कि फीस कम की जाये। ठीक है, निजी विद्यालयों ने सस्ते दामों में सरकार से ज़मीनें ली हैं पर शिक्षा भी एक उद्योग है जिसमें मालिकों ने अथाह लेन-देन किया है। तब अगर विद्यार्थी से रियायत करेंगे तो व्यापारी तथा राजनेता कैसे जीवित रह सकेंगे?

देश में हर तरफ संगोष्ठी-समारोह भी आम-आदमी की खातिर आयोजित होते रहते हैं भले ही उनमें उसकी उपस्थिती नगण्य हो। आम-आदमी की अज्ञानता देखिये कि यह नहीं जानता कि इसकी भूख की चिंता में कितनी गोष्ठीयां पांच-सितारा होटलों में आयोजित की जा चुकी हैं। और अब तो सरकार आम-आदमी के हितों के लिए इतनी जागरूक है कि वो संविधान द्वारा दिये गये मौलिक अधिकारों से भी उसे वंचित कर देना चाहती है ताकि आम-आदमी का अविरल विकास हो सके। पता नहीं ये आम-आदमी क्यूँ नहीं समझता कि नोटबंदी, उद्योगपतियों की कर्ज़ माफी, सस्ते दामों में ज़मीन का बेचान और मीडिया पे अंकुश सिर्फ इसके विकास और भलाई के लिये किया जा रहा है।  

कहने का तात्पर्य य़े है कि सिपाही, पटवारी, सरपंच, जन-प्रतिनिधि से लेकर शिक्षक, सेवक, अधिकारी, व्यापारी, कलाकार और बुद्धीजन तथा आईपीएल से ले कर निजी उद्योगपतियों तक, सब आम आदमी को समर्पित हैं तथा रिश्वत, सूदखोरी से लेकर जिस्मफरोशी तक के तमाम कार्य सिर्फ इस आम आदमी की भलाई के लिये किये जा रहे हैं। पर न जाने क्यूँ य़े आम आदमी है कि हर समय माथे पे सलवट लिये ही घूमता रहता है? इस मूर्ख को समझ ही नहीं आता कि आज़ादी के पिचहत्तर साल बाद भी अगर य़े फटे हाल जी रहा है तो इसमें कसूर सरकारी व्यवस्था और व्यापार का नहीं, इसकी तकदीर का है। आखिर ये इस देश में पैदा ही क्यूँ हुआ?

6 replies on “आम आदमी है नासमझ

Leave a Reply